छत्तीसगढ़ का रायगढ़ जिला धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं के लिए जाना जाता है। यहां से लगभग 30 किलोमीटर दूर कर्मागढ़ गांव में स्थित मानकेश्वरी मंदिर हर साल शरद पूर्णिमा पर हजारों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बनता है। खास बात यह है कि यहां अब भी सदियों पुरानी परंपरा के तहत सैकड़ों बकरों की बलि दी जाती है।
कैसे होती है यह परंपरा?
-
नवरात्र में यहां ज्योत प्रज्ज्वलित की जाती है, जो शरद पूर्णिमा तक लगातार जलती रहती है।
-
शरद पूर्णिमा के दिन बैगा (पारंपरिक पुजारी) पर देवी का अवतरण माना जाता है।
-
उसी समय मंदिर परिसर में श्रद्धालु अपनी मन्नतें पूरी होने पर बकरों की बलि देते हैं।
-
दिनभर में करीब सौ से अधिक बकरों की बलि दी जाती है और मंदिर में मेला-सा माहौल रहता है।
मान्यता और धार्मिक महत्व
-
मान्यता है कि यह मंदिर रायगढ़ राजपरिवार की कुलदेवी मानकेश्वरी माता को समर्पित है।
-
बलि से पहले बैगा को राजपरिवार की अंगूठी पहनाई जाती है। यह अंगूठी सामान्य दिनों में ढीली रहती है, लेकिन बलि पूजा के दिन यह स्वतः कस जाती है। इसे देवी का वास माना जाता है।
-
श्रद्धालु यहां आकर मन्नत मांगते हैं और अगले साल पूरी होने पर बकरा चढ़ाते हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
-
कहा जाता है कि 1700 ईस्वी के आसपास हिमगिरि (ओडिशा) रियासत का राजा युद्ध हारकर जंजीरों में जकड़ा हुआ यहां आया। देवी ने उसे दर्शन देकर बंधन मुक्त किया।
-
1780 में अंग्रेजों ने रायगढ़ और हिमगिरि पर हमला किया। युद्ध के दौरान कर्मागढ़ के जंगलों में अचानक मधुमक्खियों और जंगली कीटों ने अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया।
-
अंग्रेज पराजित होकर लौटे और रायगढ़ रियासत को स्वतंत्र छोड़ दिया। इसके बाद से यह मंदिर और भी प्रसिद्ध हो गया।
भीड़ और आयोजन
-
शरद पूर्णिमा पर रायगढ़ और आसपास के जिलों के साथ ओडिशा से भी हजारों लोग यहां पहुंचते हैं।
-
मंदिर समिति के अनुसार, बलि के समय बैगा के पीछे चलने वाले झंडाधारी पर भीमसेन का वास माना जाता है।
-
सुबह से रात तक पूजा, अर्चना और बलि की परंपरा चलती रहती है और पूरा गांव मेले जैसा रूप ले लेता है।
कुल मिलाकर, कर्मागढ़ का मानकेश्वरी मंदिर न सिर्फ आस्था और परंपरा का प्रतीक है, बल्कि यह इतिहास और लोककथाओं से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। यहां की सैकड़ों साल पुरानी बलि परंपरा आज भी जारी है और हर साल हजारों श्रद्धालु इसे देखने और देवी से आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं।