देश के किसी भी शहर में PG ढूंढने जाएं तो पहला सवाल यही पूछा जाता है- सिंगल या शेयरिंग। फिर बात किराए की आती है तो सबसे ज्यादा किराया सिंगल बेड का होता है, उससे कम डबल शेयरिंग का और ज्यादा किफायती होकर सोचेंगे तो कमरा तीन या चार लोगों के साथ साझा करना पड़ सकता है। उसका किराया सबसे कम जो होता है।
आप कितने लोगों के साथ अपना रूम या फ्लैट शेयर कर रहे हैं, इसका सीधा असर आपकी जेब पर पड़ता है। लेकिन क्या सिर्फ जेब पर ही पड़ता है या कुछ और भी चीजें हैं, जो इससे प्रभावित हो रही हैं। मसलन आपकी खुशी, आपका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य।
थोड़ा चौंक गए न। आपको लगता है कि साथ रहने के झमेले और सिरदर्द ज्यादा हैं, खुशियां कम। लेकिन एक नई रिसर्च का दावा इसके ठीक उलट है, जो कह रही है कि लोगों का साथ हमारी खुशी बढ़ा सकता है।
तो चलिए रिलेशनशिप कॉलम में आज इसी सवाल की पड़ताल करते हैं। अकेले रहना अच्छा है या लोगों के साथ मिलकर।
लोनलीनेस- नया एपिडेमिक
2020 में कोविड महामारी फैलने से पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने लोनलीनेस यानी अकेलेपन को नया एपिडेमिक घोषित किया था। पूरी दुनिया में लोगों का अकेलापन बढ़ रहा है। यह समस्या कितनी बड़ी है, इस बात से ही अंदाजा लगा सकते हैं कि ब्रिटेन ने तो लोनलीनेस मिनिस्टर भी अपॉइंट कर डाला।
यही कारण है कि ब्रिटेन में अब लोग कम्युनिटी लिविंग की ओर बढ़ रहे हैं। अकेले रहने की बजाय वे समूह में रहने का विकल्प चुन रहे हैं।
ब्रिटेन में को-हाउसिंग को प्रमोट करने वाली एक संस्था आर्बोरेटम कोहाउसिंग की एक नई रिसर्च कह रही है कि कम्युनिटी लिविंग यानी ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के साथ मिल-जुलकर सामूहिक रूप से रहना जिंदगी में खुशहाली की वजह बन सकता है। रिसर्च में पाया गया कि समूह में रहने वाले लोग ज्यादा खुश और संतुष्ट रहते हैं।
यानी अगर आप कमरा, फ्लैट या घर ज्यादा लोगों के साथ शेयर करते हैं तो इसकी पूरी संभावना है कि आप अकेले रहने वालों की अपेक्षा ज्यादा खुश और हेल्दी रहें
महंगाई ने दिखाई नई राह, बदल रही पश्चिमी देशों की सोच
‘गुड लाइफ’ यानी अच्छी जिंदगी के बारे में हमारी और पश्चिमी देशों की सोच में जमीन-आसमान का फर्क है। वहां ‘गुड लाइफ’ का मतलब हर शख्स के लिए रहने की अलग जगह और उनकी प्राइवेसी का हद से ज्यादा सम्मान होता है।
यही वजह है कि पश्चिमी देशों में कम उम्र में ही बच्चों को अलग कमरा दे दिया जाता है। 18-20 साल के होते ही बच्चे मां-बाप का घर भी छोड़ देते हैं। इन जगहों पर बिना परमिशन दूसरे के कमरे में जाना भी अशिष्टता मानी जा सकती है। यहां पड़ोसी भी एक-दूसरे से ज्यादा मतलब नहीं रखते।
दूसरी ओर भारत और दूसरी पूर्वी संस्कृतियों में सामुदायिक जीवन को महत्व दिया जाता है। जहां गांव और मुहल्ले को वृहद परिवार की तरह देखे जाने की परंपरा रही है।
लेकिन पिछले कुछ सालों में ब्रिटेन समेत तमाम पश्चिमी देश कमरतोड़ महंगाई से जूझ रहे हैं। हाउसिंग कॉस्ट हद से ज्यादा बढ़ गई है, जिसकी वजह से नई उम्र के लोग खुद का घर खरीद पाने या किराया चुका पाने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं।
ऐसे में ब्रिटेन के युवा दूसरों के साथ फ्लैट या घर साझा करने लगे। देखते ही देखते ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में सैकड़ों कम्युनिटी लिविंग ग्रुप्स बन गए, जहां 2 से लेकर हजारों लोग तक एक साथ, एक छत के नीचे रहने लगे।
कम्युनिटी लिविंग ग्रुप्स एक कमरे से लेकर पूरी-की-पूरी बिल्डिंग तक को किराए पर लेने लगे हैं। तमाम ऐसी सोसाइटीज बन गई हैं, जो कम खर्चे और आसान शर्तों पर नए लोगों को अपने कम्युनिटी लिविंग ग्रुप्स में जोड़ने का ऑफर देती हैं।
जिनको मान रहे थे दुखियारा, वो निकले सबसे खुश
पश्चिमी मान्यता के अनुसार शुरुआत में को-हाउसिंग या कम्युनिटी लिविंग में रहने वाले लोगों को हीन भावना से देखा गया। इन्हें असफल और सामान्य इंसानी जरूरतों को पूरा कर पाने में असमर्थ भी बताया गया। कुछ संस्थाओं ने तो ऐसे लोगों की बेहतरी और उनकी आर्थिक स्थिति को ठीक करने के लिए काम भी शुरू कर दिया। सरकार से इनकी मदद की गुहार लगाई गई।
दूसरी ओर, दिनोंदिन ऐसे को-हाउसिंग या कम्युनिटी लिविंग ग्रुप्स बढ़ते ही जा रहे थे। नया ट्रेंड यह देखने को मिला कि जो लोग खुद अपने घर या प्लैट का खर्च उठा सकते थे, उन्होंने भी कम्युनिटी लिविंग में रहना चुना।
इस घटना ने समाजशास्त्रियों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस बारे में कई रिसर्च और स्टडी हुईं। इसमें पाया गया कि कम्युनल लिविंग में रहने वाले लोग अकेले या न्यूक्लियर फैमिली यानी एकल परिवारों में रहने वालों की अपेक्षा अपनी जिंदगी से ज्यादा खुद और संतुष्ट हैं।
साथ में बनता दर्जनों लोगों का खाना, रहवासियों की होती रेगुलर मीटिंग्स
ब्रिटेन में को-हाउसिंग को प्रमोट करने वाली संस्था ‘आर्बोरेटम को-हाउसिंग’ की वेबसाइट से मिली जानकारी के अनुसार, को-हाउसिंग अलग-अलग लेवल की हो सकती है। आमतौर पर को-हाउसिंग में रहने वाले लोगों का इनडोर और आउटडोर लिविंग एरिया कॉमन होता है। कई को-हाउसिंग ग्रुप्स में कम्युनिटी किचेन भी चलता है, जिसमें सबलोग मिलकर खाना पकाते हैं।
को-हाउसिंग में रहने वाले लोग एक-दूसरे से ज्यादा इंटरेक्ट कर पाते हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई बिल्डिंग को-हाउसिंग के रूप में विकसित हुई हो तो इसके फ्लैट्स में रहने वाले लोगों का एक-दूसरे के यहां खूब आना जाना होगा। उनके बीच परिवार जैसा माहौल होगा। वे लोग एक-दूसरे की मदद के लिए हमेशा तैयार मिलेंगे। अगर इस को-हाउसिंग में रहने वाले किसी वर्किंग कपल का बच्चा है तो वह काम पर जाने से पहले यहां के किसी बुजुर्ग को अपने बच्चे की जिम्मेदारी सौंपकर जा सकता है। कई बड़े को-हाउसिंग ग्रुप्स में तो कॉमन म्यूजिक रूम और थियेटर तक बनाए जाते हैं।
पश्चिमी देश भले आज को-हाउसिंग को अपना रहे हैं, लेकिन हमारे देश में यह अवधारणा नई नहीं है। शहरों में 5 दोस्तों का फ्लैट शेयर करना नॉर्मल और कई बार जरूरी भी होता है। इसी तरह गांव में 3-4 पीढ़ियां साथ मिलकर रहती हैं।
हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले दिनों न्यूक्लियर फैमिली का चलन भी तेजी से बढ़ा है। संयुक्त परिवार तेजी से कम हो रहे हैं। मनोविज्ञान की स्पष्ट राय है कि साथ रहना मेंटल-फिजिकल वेलबीइंग और सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से बेहतर है। ऐसे परिवारों में पलने वाले बच्चे भी ज्यादा स्मार्ट होते हैं।