चुनावी माहौल में नारों और बयानबाजी का असर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में भाजपा के “बंटेंगे तो कटेंगे” नारे पर बहस तेज हो गई है। विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस, इस नारे को विभाजनकारी और हिंसक बता रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस नारे का उद्देश्य समाज को तोड़ना है, या यह सिर्फ एक चेतावनी है कि विभाजन हमारे समाज को कमजोर कर सकता है?
“एकता में शक्ति” के विचार को अगर सरल और संवादपूर्ण भाषा में व्यक्त किया जाए, तो “बंटेंगे तो कटेंगे” जैसा नारा सामने आता है। यह नारा इस बात को रेखांकित करता है कि समाज के भीतर छोटे-छोटे मतभेदों को भुलाकर एकजुट रहना ही हमारी ताकत है। इतिहास भी इस बात का गवाह है कि जब समाज बंटा है, तब उसे कमजोर करना और तोड़ना आसान हो गया है।
इस नारे के आलोचक वे भी हैं, जिन्होंने अतीत में “भारत तेरे टुकड़े होंगे” और “कश्मीर मांगे आज़ादी” जैसे विभाजनकारी नारों पर चुप्पी साधी। वे लोग, जो “सर तन से जुदा” जैसे हिंसक नारों पर विरोध दर्ज कराने में असफल रहे, आज इस नारे को विवादित बनाने में जुटे हैं। सवाल उठता है कि जब भड़काऊ और हिंसक नारों पर मौन साधा गया, तब यह चिंता कहां थी?
“बंटेंगे तो कटेंगे” जैसा नारा न केवल एकता का संदेश देता है, बल्कि हमें इस बात की भी याद दिलाता है कि बाहरी ताकतों और विभाजनकारी मानसिकताओं से बचने के लिए समाज को संगठित और मजबूत रहना होगा। आलोचना करने वालों को इस नारे के संदेश को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है, क्योंकि इसका उद्देश्य समाज को जोड़ना और मजबूत बनाना है, तोड़ना नहीं।