देश आज़ाद हुआ, तिरंगा लहराया, सड़कों पर जश्न का समंदर उमड़ा… और इसी ऐतिहासिक दिन हिंदी सिनेमा के पर्दे पर उतरी एक फिल्म, जिसने मनोरंजन की धारा को नई दिशा दे दी — ‘शहनाई’।
आज़ादी के जश्न की सिनेमाई धुन
निर्देशक पी. एल. संतोषी की 133 मिनट लंबी इस फिल्म में सी. रामचंद्र का संगीत उस दौर की भीड़ से अलग खड़ा था।
सबसे बड़ा आकर्षण बना — “आना मेरी जान संडे के संडे” — एक ऐसा गीत जिसमें वेस्टर्न म्यूज़िक का छौंक था, जो 1947 के संगीत प्रेमियों के लिए चौंकाने वाला और ताज़गीभरा अनुभव था।
इसे गाया था शमशाद बेगम और सी. रामचंद्र ने, और पर्दे पर सजाया दुलारी और मुमताज अली ने।
लोकप्रियता के साथ विवाद भी
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गाना तुरंत टॉप चार्ट्स में पहुंच गया, बंटवारे और अनिश्चितता के बीच यह लोगों को मुस्कान देने वाला नुस्खा बना।
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लेकिन आलोचकों को यह बेअदब और “अश्लील” लगा। फिल्म इंडिया पत्रिका में एक पाठक ने लिखा कि ऐसे गाने युवाओं की नैतिकता गिरा सकते हैं।
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समय ने सब बदल दिया — 90 के दशक में यही धुन NECC के अंडे वाले विज्ञापन “खाना मेरी जान, मुर्गी के अंडे” के जरिए घर-घर में गूंज उठी।
स्वतंत्रता दिवस — सिनेमाघरों की कमाई का पर्व
‘शहनाई’ ने साबित किया कि 15 अगस्त सिर्फ राजनीति और इतिहास का दिन नहीं, बल्कि बॉक्स ऑफिस के लिए भी सोने की खान है।
1947–1950 के बीच शहनाई, मेला और चंद्रलेखा जैसी फिल्मों ने इसी समय रिकॉर्ड तोड़ भीड़ जुटाई। लोग सुबह देशभक्ति के जश्न में डूबते और शाम को सिनेमा हॉल में मनोरंजन का आनंद लेते।