“खाली थिएटर देखकर डिप्रेशन में चला गया… और अमजद खान की आंखों से बह निकले आंसू”
15 अगस्त 1975 — आज से ठीक आधी सदी पहले, भारतीय सिनेमा ने एक ऐसा दिन देखा जिसने इतिहास बदल दिया। फ़िल्म का नाम था “शोले”।
शुरुआत में थिएटर सूने थे, सीटें खाली… और मेकर्स का मन बैठ चुका था। लेकिन सिर्फ़ एक हफ़्ते बाद, वही फ़िल्म 6 साल तक सिनेमाघरों में जमी रही, और टिकटें ब्लैक में बिकते-बिकते लोगों को फ्लैट खरीदवा गईं।
“हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं” — असरानी की पहचान
असरानी का वो कॉमिक जेलर आज भी उनकी पहचान है, जबकि शुरुआत में उनका रोल काट भी दिया गया था। नागपुर के एक पत्रकार की सलाह पर सीन दोबारा जोड़ा गया… और फिर ये डायलॉग हमेशा के लिए अमर हो गया।
गब्बर सिंह के लिए जंग
-
पहला ऑफ़र: डैनी को, लेकिन ‘धर्मात्मा’ के लिए फिरोज़ खान ने उन्हें रोक दिया।
-
दूसरा ऑफ़र: सुनील दत्त को, मगर क्रेडिट ऑर्डर पर असहमति ने रोल हाथ से निकलवा दिया।
-
तीसरा प्रयास: शत्रुघ्न सिन्हा, लेकिन बात नहीं बनी।
-
अंततः: सलीम-जावेद ने एक नाटक में अमजद खान को देखा… और गब्बर इतिहास बन गया।
आवाज़ का टेस्ट और आंखों के आंसू
अमजद खान को डर था कि उनकी आवाज़ रिजेक्ट हो जाएगी। लेकिन रिकॉर्डिस्ट मंगेश देसाई ने पास कर दिया। बाद में उनके डायलॉग कैसेट की रिकॉर्ड बिक्री हुई—“कितने आदमी थे” हर गली-मोहल्ले में गूंजने लगा।
एक बार वडोदरा के सफ़र में, किसी दुकान से अचानक वही डायलॉग बजा। अमजद की आंखें भर आईं—जिस आवाज़ को लोग नापसंद करने वाले थे, वही उन्हें अमर कर गई।
असरानी का रोल — हिटलर के पोज़ से प्रेरित
रमेश सिप्पी और सलीम-जावेद ने असरानी को WWII की एक किताब दी। उसमें हिटलर के 10-12 पोज़ थे। असरानी ने 3-4 पोज़ अपनाए, डायलॉग रट लिए, और सेट पर तैयार पहुंचे।
डिप्रेशन से लेकर ब्लॉकबस्टर तक
रिलीज़ के पहले हफ़्ते असरानी ने जुहू के चंदन थिएटर में खाली हॉल देखा और डिप्रेशन में चले गए। अमजद खान भी उदास थे।
लेकिन मिनर्वा थिएटर में 70mm स्क्रीन पर शोले के सिक्के गिरने का सीन दर्शकों को इतना खींच लाया कि शो हाउसफुल होने लगे… और फिर इतिहास लिखा गया।
50 साल बाद भी पहचान
जनवरी 2025 — कोटा के पास एक गांव में शूटिंग। भीड़ में चार साल की बच्ची ने दूर से पुकारा—“वो असरानी जेलर!”
असरानी कहते हैं—“मुझे लगता है यही एक किरदार की असली जीत है।”