केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि अगर राज्यपाल विधानसभा से पास हुए विधेयकों पर लंबे समय तक कोई निर्णय नहीं लेते हैं, तो राज्यों को अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की बजाय संवाद का रास्ता अपनाना चाहिए।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि “हर समस्या का हल अदालतें नहीं होतीं। लोकतंत्र में बातचीत और सहमति ही पहला रास्ता होना चाहिए। यही परंपरा दशकों से चली आ रही है।”
केंद्र के 5 बड़े तर्क
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अगर राज्यपाल विधेयक पर विचार नहीं कर रहे हैं, तो मुख्यमंत्री बातचीत और राजनीतिक पहल कर सकते हैं।
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कई मामलों में राज्यपाल और सीएम की मुलाकात या राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से संवाद से रास्ता निकलता है।
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कई बार फोन कॉल तक से समाधान हो गया है।
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संविधान में राज्यपाल/राष्ट्रपति के लिए किसी विधेयक पर निर्णय की समय-सीमा तय नहीं है।
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अदालत संसद से कानून बनाने का सुझाव दे सकती है, लेकिन आदेश देकर समय-सीमा नहीं तय कर सकती।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी (20 अगस्त)
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“निर्वाचित सरकारें राज्यपाल की मर्जी पर नहीं चल सकतीं।”
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अगर विधानसभा दोबारा बिल पास कर भेजती है, तो राज्यपाल को मंजूरी देनी ही होगी।
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राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक रोककर नहीं रख सकते।
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अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास सिर्फ चार विकल्प हैं— मंजूरी, रोक, राष्ट्रपति के पास भेजना, या पुनर्विचार के लिए लौटाना।
️ पृष्ठभूमि
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यह विवाद तमिलनाडु से शुरू हुआ था, जब राज्यपाल ने कई बिल लंबित रखे।
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सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को साफ किया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।
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कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति को राज्यपाल से भेजे गए बिल पर 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा।
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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर राय मांगी थी।
साफ है कि यह मामला अब सिर्फ कानूनी व्याख्या नहीं, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों में संवाद बनाम न्यायालयीय हस्तक्षेप का बड़ा टेस्ट बन चुका है।