दस फ़ुट चौड़ा और उतना ही लंबा मकान मोहन सिंह ओबेरॉय को ब्रितानी भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला के एक होटल में नौकरी के दौरान मिला था.
‘दी सेसल’ नाम के इस होटल में उन्हें कोयले का हिसाब रखना होता था. उन्हें मकान भी उस पहाड़ी के बेहद निचले हिस्से में दिया गया था जिस पर यह शानदार होटल स्थित था. यह पहाड़ी वह दिन में दो बार चढ़ते, सुबह काम पर आते हुए और दोपहर में अपनी बीवी ईशरान देवी के हाथ का पका सादा सा खाना खाकर लौटते हुए.
उनकी तनख़्वाह पचास रुपये थी यानी उस रक़म से दोगुने रुपये जो उनकी मां भागवंती ने सन 1922 में झेलम (अब पाकिस्तानी पंजाब में चकवाल) के क़स्बे बहवन से चलते हुए उन्हें दिए थे.
मोहन सिंह के पिता ठेकेदार अतर सिंह तो तभी चल बसे थे जब वह छह माह के थे.
पत्रकार बाची कर्करिया लिखती हैं, “उनकी मां जो केवल सोलह साल की थीं, तानों से तंग आकर एक रात अपने दूध पीते बेटे को उठाकर बारह किलोमीटर पैदल चलकर अपने मायके चली गईं.”
गांव में शुरुआती शिक्षा के बाद मोहन सिंह ने रावलपिंडी से मैट्रिक किया. वह लाहौर में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, फिर आर्थिक तंगी की वजह से पढ़ाई जारी न रह सकी.
नौकरी के लिए यह शिक्षा कम समझी तो एक दोस्त के कहने पर अमृतसर में उनके साथ रहे और शॉर्टहैंड और टाइपिंग का कोर्स किया. काम फिर भी न मिला.
उनके चाचा ने लाहौर में अपनी जूते की फ़ैक्ट्री में उन्हें नौकरी दी लेकिन जल्द ही पैसों की कमी की वजह से वह कारख़ाना बंद हो गया और मोहन सिंह अपने गांव लौटने पर मजबूर हो गए.
वहीं अश्नाक रॉय की बेटी (ईशरान देवी) से शादी हो गई. उन्होंने शादी के बाद के दिन सरगोधा में अपने साले के यहां गुज़ारे.
प्लेग की महामारी
बहवन वापस हुए तो वहां प्लेग की महामारी फैल चुकी थी. उनकी मां ने सरगोधा वापस जाने की राय दी लेकिन उन्हीं दिनों एक सरकारी दफ़्तर में जूनियर क्लर्क की नौकरी के लिए स्थानीय अख़बार में इश्तेहार देखा. वह जेब में मां के दिए 25 रुपये लेकर नौकरी के लिए इम्तिहान देने कोई पौने चार सौ किलोमीटर दूर शिमला चले गए.
मोहन सिंह के अनुसार वह इस इम्तिहान में फ़ेल होने के बाद एक दिन निराश होकर होटल ‘दी सेसल’ के पास से गुज़रे तो अचानक अंदर जाकर क़िस्मत आज़माने की इच्छा पैदा हुई.
“एसोसिएटेड होटल्स ऑफ़ इंडिया के स्वामित्व वाले इस ऊंचे दर्जे के होटल के मैनेजर एक मेहरबान अंग्रेज़ थे. नाम था डी डब्ल्यू ग्रूव. उन्होंने मुझे 40 रुपये मासिक पर बिलिंग क्लर्क रख लिया.”
“जल्द ही मेरी तनख़्वाह 50 रुपये कर दी गई. बीवी भी शिमला आ गई तो हम अपने ख़स्ता हाल घर में रहने लगे. ख़ुद ही दीवारों पर सफ़ेदी की जिससे हाथों में छाले पड़ गए लेकिन हम शुक्रगुज़ार थे कि हमारे सरों पर छत तो है.”
अपने जीवन की ये सब बातें मोहन सिंह ओबेरॉय ने सन 1982 में शोधकर्ता गीता पीरामल से साझा की थीं.
“सेसल का प्रबंधन बदला तो अर्नेस्ट क्लार्क मैनेजर बन गए. मैं स्टेनोग्राफ़ी जानता था तो क्लार्क ने मुझे कैशियर और स्टेनोग्राफ़र का पद दे दिया.”
“एक दिन पंडित मोतीलाल नेहरू सेसल में ठहरे. तब वह स्वराज पार्टी के नेता थे. पंडित जी को एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जल्द और सावधानी से टाइप करवानी थी. मैंने सारी रात जग कर वह रिपोर्ट पूरी की और अगली सुबह उन्हें दी तो उन्होंने सौ रुपये का नोट निकाल कर शुक्रिए के साथ मुझे दिया.”
“मेरी आंखों में आंसू आ गए और मैं जल्दी से कमरे से निकल गया. एक सौ रुपया, जिसे दौलतमंद फेंक देते हैं मेरे लिए बहुत कुछ था. रुपए की क्रय शक्ति इतनी अधिक थी कि मैंने बीवी के लिए घड़ी, बच्चे के लिए कपड़े और अपने लिए बरसाती कोट ख़रीदा.”
शिमला का कार्लटन होटल
क्लार्क का एसोसिएटेड होटल्स ऑफ़ इंडिया के साथ समझौता ख़त्म हुआ तो उन्होंने दिल्ली क्लब के लिए कैटरिंग का ठेका ले लिया. मोहन सिंह ने भी उनके यहां नौकरी की पेशकश क़बूल कर ली. उनकी तनख्वाह अब एक सौ रुपये मासिक थी. दिल्ली क्लब का समझौता केवल एक साल के लिए था और क्लार्क ने जल्द ही नए कारोबार की तलाश शुरू कर दी.
शिमला में कार्लटन होटल ख़त्म हो चुका था. क्लार्क उसे लीज़ पर लेना चाहते थे लेकिन ज़मानतदार की ज़रूरत थी.
मोहन ने पीरामल को बताया, “मैंने अपने कुछ अमीर रिश्तेदारों और दोस्तों से संपर्क किया. कार्लटन अब क्लार्क होटल बन गया. पांच साल के बाद क्लार्क ने रिटायर होने और होटल को बेचने का फ़ैसला किया. उन्होंने मुझे यह कहकर पेशकश की कि वह होटल चलाने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को प्राथमिकता देंगे जो उसकी परंपरा और प्रदर्शन को बरक़रार रख सके.”
“ज़रूरी रक़म के लिए मुझे अपनी कुछ संपत्ति और अपनी बीवी के गहने को गिरवी रखना पड़ा. मैंने क्लार्क होटल का स्वामित्व अपने एक मेहरबान चाचा की मदद से संभाल लिया जो पहले भी मेरे साथ खड़े थे.”
14 अगस्त 1934 तक मोहन सिंह क्लार्क के दिल्ली और शिमला में होटलों के अकेले मालिक बन चुके थे.
मोहन सिंह और उनकी पत्नी होटल के लिए मीट और सब्ज़ियां ख़ुद ख़रीदते और इस तरह उन्होंने बिल में पचास प्रतिशत कमी की.
धीरे-धीरे दार्जिलिंग, चंडीगढ़ और कश्मीर में और होटल का इज़ाफ़ा किया.
मोहन सिंह ने बताया, “मैंने अपने होटल बनाने के बारे में सोचना शुरू किया और पहली कोशिश उड़ीसा के गोपालपुर ऑन सी में एक छोटा सा होटल था.”
उनका कहना था कि यह एक अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि उनके जीवन का लगभग हर मोड़ किसी न किसी महामारी से जुड़ा रहा.
कोलकाता में फैला हैजा
सन 1933 में कोलकाता में हैजा की महामारी फैली थी. आर्मीनियाई रियल इस्टेट टायकून स्टीफ़न आराथोन का ग्रैंड होटल सौ से अधिक विदेशी मेहमानों की मौत के बाद बंद कर दिया गया था. लोग कोलकाता जाने से डरते थे. अपने पुराने विश्वास और संकल्प के साथ वह इस होटल को एक बेहद लाभकारी कारोबारी योजना में बदलने में सफल रहे.
सन 1939 में दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत के साथ ही कोलकाता सैनिकों से भर गया. ब्रिटिश फ़ौज रहने के लिए जगह तलाश रही थी.
मोहन सिंह ने बताया, “मैंने तुरंत हर व्यक्ति के लिए दस रुपये किराए के हिसाब से पंद्रह सौ फ़ौजियों के ठहरने और खाने-पीने का बंदोबस्त कर दिया. मैंने डेढ़ हजार रुपए मासिक वेतन पर मिस्टर ग्रूव को मैनेजर रखा जिन्होंने सेसल होटल में मुझे पचास रुपये महीने पर पहली नौकरी दी थी.”
यह होटल चलाना उनके करियर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. सन 1941 में भारत सरकार ने उन्हें भारतीय होटल उद्योग की सेवा के सम्मान में राय बहादुर के ख़िताब से नवाज़ा.
सन 1943 में मोहन सिंह ने एसोसिएटेड होटल्स ऑफ़ इंडिया लिमिटेड के शेयर ख़रीद कर रावलपिंडी, पेशावर, लाहौर, मरी और दिल्ली में बने होटलों की एक बड़ी शृंखला का स्वामित्व प्राप्त कर लिया.
और तो और कंपनी के स्वामित्व के साथ वह होटल भी उनका हो चुका था जहां उन्होंने अपनी पहली नौकरी की थी.
विभाजन के बाद 1961 तक रावलपिंडी में फ्लैश मेंस, लाहौर में फ़्लिटीज़, पेशावर में डेंस और मरी में सेसल इसी कंपनी के पास थे.
बाद में उसका एसोसिएटेड होटल्स ऑफ़ पाकिस्तान नाम की कंपनी में विलय कर दिया गया मगर उसके अधिकांश शेयर ओबेरॉय परिवार के पास ही थे. हालांकि 1965 की पाकिस्तान-भारत युद्ध के बाद उन सभी होटलों को दुश्मन की जायदाद घोषित कर ज़ब्त कर लिया गया.
जनरल ज़ियाउल हक़ की मौत
पत्रकार पॉल लुईस के अनुसार हालांकि पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल ज़ियाउल हक़ ने उन्हें वापस करने का वादा किया था लेकिन मोहन सिंह के उनसे मिलने से पहले ही उनका हवाई जहाज़ हादसे में देहांत हो गया.
लुईस लिखते हैं कि मोहन सिंह ओबेरॉय ने भारतीय होटल उद्योग को बीसवीं सदी की ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया था.
“वह भारत के कोनराड हिल्टन कहलाए. वह जर्जर और कम क़ीमत वाली जायदादों को तलाश करने और उनके आधुनिकीकरण में महारत रखते थे.”
“उन्होंने पुराने और ख़स्ता हाल महलों, ऐतिहासिक स्मारकों और इमारत को शानदार होटल में बदल दिया जैसे कोलकाता में दी ओबराय ग्रैंड, क़ाहिरा में ऐतिहासिक मीना हाउस और ऑस्ट्रेलिया में दी विंडसर. शिमला में ओबेरॉय सेसल की इमारत बीसवीं सदी की शुरुआत में बनाई गई थी, इसे बड़े और पेचीदा डिज़ाइन व सजावट के बाद अप्रैल 1997 में दोबारा खोला गया.
भारत, श्रीलंका, नेपाल, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया और हंगरी में लगभग 35 लग्ज़री होटलों के साथ ओबेरॉय ग्रुप टाटा ग्रुप के तक के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी होटल कंपनी बन गई.
उनके नेतृत्व में ओबेरॉय ग्रुप में होटल का अपना दूसरा ब्रांड ‘ट्राइडेंट’ लाया. ट्राइडेंट फ़ाइव स्टार होटल हैं.
इस ग्रुप का एक और महत्वपूर्ण पड़ाव 1966 में ओबेरॉय स्कूल ऑफ़ होटल मैनेजमेंट की स्थापना थी.
यह स्कूल अब ‘दी ओबराय सेंटर ऑफ़ लर्निंग ऐंड डेवलपमेंट’ के नाम से जाना जाता है और मेहमाननवाज़ी के लिए उच्च स्तरीय ट्रेनिंग उपलब्ध कराता है.
महिलाओं को नौकरी
अपने होटल में महिलाओं को नौकरी देने और ऊंचे स्तर को सुनिश्चित करने के लिए सहयोगी उद्योगों की स्थापना करने का फ़ैसला भी उल्लेखनीय है.
ओबेरॉय ग्रुप ने 1959 में पहली बार भारत में फ़्लाइट कैटरिंग ऑपरेशन शुरू किया.
मोहन सिंह ओबेरॉय ने 1962 में राज्यसभा का चुनाव लड़ा और सफल हुए. सन 1967 में लोकसभा के चुनाव में खड़े हुए और 46 हज़ार से अधिक वोटों से जीत गए.
सन 2001 में भारत सरकार ने उन्हें देश के तीसरे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया.
बाची कर्करिया ने मोहन सिंह ओबेरॉय की जीवनी ‘डेयर टू ड्रीम: अ लाइफ़ ऑफ़ राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय’ के नाम से लिखी है.
उनके अनुसार एमबीए के बिना उन्होंने अपनी ‘हैंड्स ऑन स्टाइल’ और ‘मैनेजमेंट हाई वॉकथ्रू’ बनाई. 1934 में शिमला के 50 कमरों वाले क्लार्क के अपने पहले होटल में उन्होंने किचन से मेहमानों के फ़्लोर तक खाना ले जाने के लिए एक लिफ़्ट तैयार की.
“किचन में चहल क़दमी करते हुए उन्होंने देखा कि मक्खन के बचे हुए टुकड़े कूड़े में फेंके जा रहे हैं. इसके बजाय उन्होंने उन टुकड़ों को मज़ेदार पेस्ट्री बनाने के लिए दोबारा इस्तेमाल करने का फ़ैसला किया. वह और ईशरान ख़रीदारियों पर गहरी नज़र रखते थे.”
दशकों बाद लगभग 90 साल की उम्र में भी वह अपने बेटे पृथ्वीराज ‘बिकी’ की लंबी बीमारी के दौरान ख़ुशी-ख़ुशी काम पर लौट आए.
“उन्होंने दिल्ली के होटल में गर्म पानी के थर्मोस्टेट की थोड़ी सी एडजस्टमेंट बताई. मेहमानों ने ध्यान भी नहीं दिया लेकिन इससे बिजली के बिल में काफ़ी फ़र्क़ पड़ा. पानी के गिलास की सतह से लेकर गुलदान में गुलाब की ऊंचाई तक सब बताते.”
पैसा और काम में संबंध
बाची कर्करिया लिखती हैं कि कहा जाता है वह अकेले ग़ैरशाही व्यक्ति थे जिन्होंने अपने फ़ॉर्म पर अपना व्यक्तिगत श्मशान बनवाया था… एक शांत, पेड़ों से ढंकी हुई, सैंडस्टोन की जगह जिस पर राजपूत शैली की छतरियां थीं लेकिन उसे 1984 में बेटे तिलक राज ‘टिकी’ और चार साल बाद अपनी पत्नी के लिए इस्तेमाल करना पड़ा.
“मोहन सिंह ने अपने जन्म के साल को 1898 से 1900 में बदल दिया था क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उन्हें 19वीं सदी का व्यक्ति समझ जाए. यह राज़ राज़ ही रह सकता था अगर उनके बेटे ‘बिकी’ अपनी इच्छा पर क़ाबू पा लेते. 1998 में उन्होंने इसे ठीक करवा दिया क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उनके पिता के 100 साल बिना किसी जश्न के गुज़र जाएं.”
राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय ने 104 साल की उम्र पाई.
मोहन सिंह का दर्शन यह था कि अगर आप केवल पैसे के बारे में सोचते हैं, तो आप सही काम नहीं करेंगे लेकिन अगर आप सही काम करते हैं, तो पैसा ख़ुद ब ख़ुद आ जाएगा.
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