नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की ताज़ा रिपोर्ट ने देश की शिक्षा व्यवस्था और समाज को गहरी चिंता में डाल दिया है। साल 2023 में 13,892 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। यह आंकड़ा अब तक का सबसे ज्यादा है और बीते 10 सालों में 72.9% की बढ़ोतरी दर्शाता है। सोचने वाली बात है कि अब छात्र आत्महत्या के मामलों ने किसानों को भी पीछे छोड़ दिया है।
बेरोजगारों के मुकाबले स्टूडेंट्स आगे
साल 2023 में बेरोजगारों की आत्महत्या के मामले जरूर घटे। 2022 में जहां 15,783 बेरोजगारों ने आत्महत्या की थी, वहीं 2023 में यह संख्या घटकर 14,234 रही। लेकिन छात्रों का आंकड़ा लगातार बढ़ता गया।
क्यों बढ़ रहे हैं स्टूडेंट सुसाइड?
रिपोर्ट बताती है कि 18 साल से कम उम्र के बच्चों में सबसे आम वजह ‘एग्जाम में असफलता’ है। सिर्फ इसी कारण 1,303 स्टूडेंट्स ने 2023 में जान दे दी।
NCRB के आंकड़ों पर नज़र डालें:
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2015 में 900 केस और बढ़े।
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2020 में यह बढ़ोतरी 2,100 तक पहुंच गई।
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2022 में थोड़ी गिरावट के बाद 2023 में फिर 848 नए केस जुड़ गए।
आत्महत्या रोकने के लिए सरकार के कदम
छात्रों को बचाने के लिए बीते सालों में कई नीतियां और नियम बनाए गए हैं:
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मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, 2017 – मानसिक रोगियों को इलाज और गरिमापूर्ण जीवन का हक।
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एंटी-रैगिंग रेगुलेशन – किसी भी शिकायत पर FIR अनिवार्य।
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स्टूडेंट काउंसलिंग सिस्टम (2016) – छात्रों की चिंता, तनाव और फेलियर से निपटने के लिए काउंसलिंग।
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गेटकीपर्स ट्रेनिंग (NIMHANS और SPIF) – ऐसे लोग तैयार करना जो सुसाइडल प्रवृत्ति की पहचान कर सकें।
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NEP 2020 – स्कूलों में सोशल वर्कर्स और काउंसलर्स की मौजूदगी, टीचर्स द्वारा बच्चों की भावनात्मक ज़रूरतों पर ध्यान।
विशेषज्ञों की राय: समस्या सिर्फ परीक्षा नहीं, पूरा सिस्टम
एमपी सुसाइड प्रिवेंशन टास्क फोर्स के सदस्य और मनोचिकित्सक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी मानते हैं कि आत्महत्या का कोई एक कारण नहीं होता।
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जेनेटिक्स, समाजिक दबाव, पैरेंट्स की उम्मीदें, शिक्षा तंत्र और पियर प्रेशर – सब मिलकर बच्चे को इस ओर धकेलते हैं।
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असली समस्या है कि हम बच्चों को फेलियर हैंडल करना सिखाते ही नहीं।
उनके मुताबिक, “आज बच्चा मानता है कि अगर वह परीक्षा पास नहीं कर पाया तो उसकी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं। वह पढ़ाई छोड़ने के लिए तैयार नहीं, लेकिन जीवन छोड़ने के लिए तैयार है। यही सोच सबसे खतरनाक है।”
कॉपीकैट इफेक्ट से और बिगड़ते हालात
डॉ. त्रिवेदी ने बताया कि मीडिया और समाज के बर्ताव से कॉपीकैट सुसाइड (Werther Effect) भी तेजी से बढ़ते हैं। यानी अगर किसी बच्चे की आत्महत्या को पढ़ाई के दबाव की ‘शहादत’ की तरह पेश किया जाए, तो दूसरे छात्र भी प्रभावित होकर वही रास्ता अपना सकते हैं।
निष्कर्ष
बीते 10 सालों में छात्र आत्महत्याओं का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है। यह समस्या सिर्फ परीक्षा के दबाव की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की खामियों और समाज की गलत सोच की है। बच्चों को यह समझाने की जरूरत है कि फेलियर अंत नहीं, बल्कि सीखने का मौका है।