भारतीय रुपया बुधवार को इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज करते हुए डॉलर के मुकाबले 90.13 के स्तर तक फिसल गया। यह वह स्तर है, जिसे भारतीय रिज़र्व बैंक पिछले कई महीनों से बचाए रखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन विदेशी पूंजी के घटते प्रवाह, आयातकों की भारी डॉलर मांग और भारत–अमेरिका व्यापार समझौते पर छाए अनिश्चित माहौल ने रुपये की कमज़ोरी को और तेज़ कर दिया। आरबीआई की लगातार इंटरवेंशन के बावजूद 88.80 का महत्वपूर्ण स्तर टूटते ही बाजार में दबाव अचानक और बढ़ गया।
करेंसी विशेषज्ञों के अनुसार, हाल के दिनों में सट्टेबाजों की शॉर्ट कवर्ड पोज़िशन और आयातकों की लगातार डॉलर खरीद ने रुपये को कमजोर करने में अहम भूमिका निभाई। विदेशी निवेशक भी भारतीय शेयर बाजार से पैसा निकाल रहे हैं, जिससे न केवल रुपये पर असर पड़ा है, बल्कि कई एशियाई मुद्राओं पर भी दबाव देखने को मिला है। अमेरिकी टैरिफ 50% तक बढ़ने के बाद से एफपीआई का फ्लो पहले से ही कमज़ोर था, और अब यह गिरावट और गहरी होती जा रही है।
इसी वजह से इस साल रुपये में लगभग 4.7% की गिरावट हो चुकी है, जबकि अधिकांश एशियाई मुद्राएँ इस अवधि में स्थिर या मजबूत बनी हुई हैं। यदि भारत–अमेरिका व्यापार समझौता और टैरिफ से जुड़े मसले लंबा खिंचते हैं तो विशेषज्ञों का अनुमान है कि डॉलर-रुपया विनिमय दर जल्द ही 91 के स्तर को छू सकती है।
शेयर बाजार भी इस गिरावट का शिकार हुआ। डॉलर की मजबूती के चलते विदेशी निवेशकों की बिकवाली तेज़ हो गई, और निफ्टी अपने रिकॉर्ड हाई से लगभग 300 अंक नीचे आ गया। बाजार विश्लेषकों का कहना है कि जब तक आरबीआई अधिक आक्रामक हस्तक्षेप नहीं करता या अमेरिका के साथ किसी सकारात्मक व्यापार समझौते की घोषणा नहीं होती, तब तक रुपये की दिशा दबाव में ही रह सकती है।
रुपये का 90 से ऊपर टिकना सीधे तौर पर जनता की जेब को प्रभावित करेगा। कच्चा तेल, गैस सिलेंडर, इलेक्ट्रॉनिक्स, मोबाइल, मशीनरी और अन्य जरूरी आयातित उत्पाद महंगे होंगे। आयात लागत बढ़ने से कंपनियों पर बोझ बढ़ेगा, जिसका असर आम उपभोक्ताओं तक पहुंचना तय है। महंगाई का दबाव पहले से ही मौजूद है, और रुपये की कमजोरी इसे और तीखा बना सकती है।
बाज़ार फिलहाल एक अनिश्चित मोड़ पर खड़ा है—डॉलर की मजबूती और वैश्विक व्यापार तनावों के बीच रुपये की यह लड़ाई आगे किस दिशा में जा सकती है, यह आने वाले सप्ताहों में साफ होगा।