इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने चुनावी पारदर्शिता पर एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए चुनाव आयोग से स्पष्ट और विस्तृत स्पष्टीकरण मांगा है। सवाल साफ है—प्रत्याशियों और उनके आश्रितों द्वारा नामांकन के समय घोषित संपत्तियों का सत्यापन आखिर किस ठोस व्यवस्था से किया जाता है?
एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने यह भी जानना चाहा कि यदि कोई उम्मीदवार गलत जानकारी देता है, तो आयोग के पास उसके खिलाफ क्या दंडात्मक तंत्र मौजूद है। कोर्ट ने आदेश दिया है कि चुनाव आयोग इस संबंध में हलफनामा दाखिल कर विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
कोर्ट की चिंता—सिर्फ घोषणा नहीं, सत्यापन भी ज़रूरी
याचिका में यह मुद्दा उठाया गया कि कई प्रत्याशी अपने हलफनामों में गलत या अधूरी जानकारी देते हैं, और उसकी जांच के लिए कोई मजबूत प्रक्रिया नजर नहीं आती। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि संपत्ति का खुलासा मात्र औपचारिकता नहीं हो सकता, बल्कि उसकी सत्यता सुनिश्चित करना लोकतंत्र और मतदाता के “जानने के अधिकार” का मूल हिस्सा है।
सुप्रीम कोर्ट के संकेत—झूठी जानकारी भ्रष्ट आचरण माना जाएगा
हाईकोर्ट ने पुराने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए साफ किया कि—
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झूठी संपत्ति घोषणा भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आती है।
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कई मामलों में चुनाव तक रद्द किए गए हैं।
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गलत जानकारी चुनाव को सीधे प्रभावित करती है और मतदाता को भ्रमित करती है।
यही वजह है कि कोर्ट चुनाव आयोग से पूछ रहा है कि क्या इसकी जांच के लिए कोई विश्वसनीय, तकनीकी या कानूनी तंत्र मौजूद है, और यदि है तो उसका कायरा रूप क्या है?
चुनावी शुचिता और पारदर्शिता राष्ट्रहित का विषय
हाईकोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि—
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लोकतंत्र की पवित्रता उम्मीदवारों की ईमानदार घोषणाओं पर निर्भर करती है।
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यदि संपत्ति बयानों में झूठ या छिपाव को नजरंदाज़ किया गया, तो यह संविधान की भावना के खिलाफ होगा।
कोर्ट ने चुनाव आयोग को जनवरी के तीसरे सप्ताह तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया है, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि भविष्य में ऐसे मामलों की जांच किस मजबूत प्रक्रिया से की जाएगी।
इस आदेश के बाद यह मामला केवल कानूनी दायरे में नहीं रहा, बल्कि यह भारत के चुनावी तंत्र में नई पारदर्शिता और जवाबदेही की बहस को जन्म देता है।