गुरु नानक देव ने श्रीरामजन्मभूमि का दर्शन कर इसकी मुक्ति का आह्वान किया था। सिखों के नौवें गुरु तेगबहादुर व उनकी निहंग सेना ने औरंगजेब को हराकर इसे मुक्त भी करा लिया पर, औरंगजेब की सेना ने फिर हमला बोल दिया। अयोध्या के अहिल्या घाट पर छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ गुरु रामदास के शिष्य बाबा वैष्णवदास रहते थे। उनकी चिमटाधारी साधुओं की फौज ने भी मुगलों को परास्त कर दिया था। पर, वह हमले करता रहा।
इससे परेशान वैष्णवदास ने गुरु गोविंद सिंह को संदेश भिजवाया। दोनों ने मिलकर मुगलों को कई बार हराया, पर 1664 में औरंगजेब आखिरकार रामजन्मभूमि पर कब्जा कर ही लिया । उसने चबूतरे और उस पर बने राममंदिर को तुड़वाकर वहां गड्ढा करवा दिया। संघर्ष की कहानी अंग्रेजी हुकूमत तक आ पहुंची। इस बीच, नवाबों ने नमाज के साथ पूजा अधिकार भी दे दिया था। पर, अंग्रेजी शासन तो हिंदू और मुसलमानों को लड़ाए रखना चाहता था। उसने 1856 में इस स्थल को चारों तरफ से घेर दिया। इसके बाद भगवान राम की पूजा ढांचे के बाहर शुरू हो गई।
अंग्रेज षड्यंत्र न करते तो 1857 में ही हो जाता समाधान वर्ष 1857. प्रथम स्वतंत्रा संग्राम का वक्त। राष्ट्रीय चेतना का ज्वार। हिंदू- मुस्लिम एक-साथ। तत्कालीन हिंदू-मुस्लिम शासकों ने बहादुर शाह जफर को सम्राट घोषित किया। अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अयोध्या और गोंडा के तत्कालीन नरेश, हनुमानगढ़ी की निर्वाणी अन्नी पट्टी के महंत उद्धव दास, क्रांतिकारी महंत रामचरण दास के साथ स्थानीय क्रांतिकारी अमीर अली भी जुट गए। सुल्तानपुर गजेटियर में कर्नल मार्टिन लिखते हैं, अमीर अली के आह्वान पर मुस्लिम समाज विवादित स्थल पर दावा छोड़ने को तैयार हो गया था। बहादुर शाह जफर ने इसे हिंदुओं को सौंपने का आदेश भी कर दिया। पर, अंग्रेजों ने षड्यंत्र कर अमीर अली और रामचरन को 18 मार्च, 1858 को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद मुद्दा उलझता चला गया।
सिखों पर केस बने फैसले के आधार
ब्रिटिश शासन ने पूजा ढांचे से बाहर और नमाज अंदर करने का आदेश दिया। इससे लोग आक्रोशित हो उठे। गुस्साए निहंगों और हिंदू राजाओं की फौज ने ढांचे पर कब्जा कर लिया। स्थानीय प्रशासन कुछ लोगों को हटाने में सफल रहा, लेकिन सिख ढांचे के सामने डटे रहे। इस कारण नमाज नहीं हो सकी। इस पर 25 सिख सैनिकों पर मुकदमा दर्ज हुआ। इस केस और आगे चलकर 22 दिसंबर, 1948 की रात ढांचे के भीतर रामलला की मूर्ति मिलने पर दर्ज केस के आधार पर ही आदालत ने माना कि 1858 के काफी पहले से उक्त स्थल पर कभी नमाज नहीं पढ़ी गई। हिंदू पूजा-अर्चना करते रहे। मंदिर के पक्ष में फैसले में ये दो केस प्रमुख आधार बने।