संसद की वेबसाइट पर ‘लीडर ऑफ अपोजिशन’ सर्च कीजिए। वहां अब भी आखिरी एंट्री सुषमा स्वराज के नाम की दर्ज है, जो 2009 से 2014 तक लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष थीं। पिछले 10 साल से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद खाली है, क्योंकि 2014 के बाद से किसी भी विपक्षी दल के 54 सांसद नहीं जीते। मावलंकर नियम के तहत नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए लोकसभा की कुल संख्या का 10% यानी 54 सांसद होना जरूरी है।
10 साल बाद कांग्रेस को लोकसभा में अधिकृत रूप से नेता प्रतिपक्ष का पद मिलेगा। इस बार कांग्रेस के 99 सांसद हैं, जो लोकसभा की कुल संख्या का 18% है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने इसके लिए राहुल गांधी के नाम का प्रस्ताव पारित किया है।
इस लेख में हम जानेंगे, नेता प्रतिपक्ष बनाने के लिए 10% सांसद क्यों जरूरी, कितना ताकतवर होता है लोकसभा में विपक्ष का नेता, उसकी नियुक्ति के नियम, सैलरी, भत्ते और अधिकार क्या-क्या होते हैं…
‘लीडर ऑफ अपोजिशन’ के लिए 10% का कोई कानून नहीं
मोदी 1.0 और मोदी 2.0 के कार्यकाल में कांग्रेस पार्टी को मावलंकर नियम के चलते नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं दिया गया था। हालांकि, लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी के मुताबिक ‘लीडर ऑफ अपोजिशन इन पॉर्लियामेंट एक्ट 1977’ में 10% का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है।
एक्ट में लिखा है कि संसद के किसी भी सदन में विपक्ष के नेता का अर्थ है, राज्यसभा या लोकसभा में विपक्ष के सबसे बड़े दल का वह नेता जिसे राज्यसभा का सभापति या लोकसभा का अध्यक्ष मान्यता देता है। यदि विपक्ष में दो या अधिक पार्टियों के नंबर एक जैसे हों तो सभापति या अध्यक्ष पार्टी की स्थिति के आधार पर फैसला लेते हैं।
उदाहरण के लिए जब 2015 में दिल्ली चुनाव में BJP की केवल तीन सीटें आई थीं। ये 10% नहीं है बावजूद इसके विधानसभा अध्यक्ष राम निवास गोयल ने भाजपा के विधायक विजेंद्र गुप्ता को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता दी थी। विधानसभा सचिवालय ने नोटिफिकेशन जारी कर कहा था कि BJP सबसे ज्यादा (3) सीट वाली पार्टी है, इसलिए उसे विपक्षी पार्टी माना जाता है।
फिर ये 10% सीट वाला नियम कहां से आया?
1952 में देश में पहला चुनाव हुआ था। कांग्रेस को 364 सीटें मिली थीं। दूसरी सबसे बड़ी पार्टी CPI(M) को 16 सीटें मिली थीं। देश के पहले लोकसभा स्पीकर जीवी मावलंकर थे। उन्होंने नियम बनाया था कि लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने के लिए कम से कम संबंधित पार्टी की 10% सीट होनी चाहिए।
इसके पीछे उनका तर्क ये था कि कोई नियम होना चाहिए वर्ना हर पार्टी नेता प्रतिपक्ष का पद मांगने लगेगी। तब से यही नियम चला आ रहा है। मावलंकर का यह नियम किसी गजट या लिखित में नहीं जारी गया था। यह नियम लोकसभा ही नहीं राज्यसभा, विधानसभा और अन्य निकायों में भी लागू किया जाता है।
पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं था। चौथी लोकसभा में पहली बार नेता प्रतिपक्ष राम सुहाग सिंह बनाए गए थे। इसका कारण था- कांग्रेस का दो हिस्सों कांग्रेस-आई और कांग्रेस-ओ में टूटना। राम सुहाग सिंह कांग्रेस-ओ के कोटे से पहले नेता प्रतिपक्ष बने थे।
तो फिर कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी कौन थे?
पहली मोदी सरकार में कांग्रेस की मांग के बावजूद स्पीकर सुमित्रा महाजन ने नेता प्रतिपक्ष का पद देने से इनकार कर दिया था। 2014 में कांग्रेस की तरफ से लीडरशिप मल्लिकार्जुन खड़गे कर रहे थे, लेकिन वे नेता प्रतिपक्ष नहीं थे। 2019 में स्पीकर ओम बिड़ला ने भी 10% का नियम ही चलाया।
सबसे बड़ी पार्टी के नेता होने के नाते दूसरे विपक्षी दलों ने भी अधीर रंजन को समर्थन दिया, लेकिन मोदी सरकार ने कभी भी अधीर रंजन को प्रोटोकाल के तहत नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं दिया। लोकसभा टीवी के प्रसारण में भी सुषमा स्वराज के नाम के आगे लीडर ऑफ अपोजिशन लिखा दिखता था, लेकिन अधीर रंजन के आगे सिर्फ उनकी सीट का नाम लिखा था।
अब सवाल ये उठता है कि फिर ED, CVC, लोकलेखा समिति में अधीर रंजन चौधरी को क्यों शामिल किया गया। चूंकि परंपरा के अनुसार नेता प्रतिपक्ष को शामिल किया जाता है और वो उपलब्ध नहीं था, ऐसे में मोदी सरकार ने सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता हाेने के नाते उस कमेटी में अधीर रंजन को शामिल किया था।
ताकत: बिना नेता प्रतिपक्ष ED, CBI प्रमुख की नियुक्ति नहीं हो सकती
नेता प्रतिपक्ष सरकार की निगरानी करता है। वह सरकार काे आईना दिखाने का काम करता है। वह सरकार के कामों को रिव्यू करता है। नेता प्रतिपक्ष का काम सरकार के लिए ऑप्शन देना है।
‘लीडर ऑफ अपोजिशन इन पॉर्लियामेंट एक्ट 1977’ के अनुसार नेता प्रतिपक्ष के अधिकार और सुविधाएं ठीक वैसे ही होते हैं, जो एक कैबिनेट मंत्री के होते हैं। नेता प्रतिपक्ष लोक लेखा समिति का चेयरमैन भी होता है। ये कमेटी सरकार के फाइनेंशियल अकाउंट्स की जांच करती है। यह उन रुपयों के हिसाब की जांच करती है जो संसद के माध्यम से सरकार को खर्च करने के लिए दिया जाता है।
नेता प्रतिपक्ष विभिन्न महत्वपूर्ण कमेटियों और सिलेक्शन कमीशन के सदस्य होते हैं। इसमें केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, मुख्य सूचना आयुक्त और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग आदि शामिल हैं। अगर सरकार सिलेक्शन कमीशन में नेता प्रतिपक्ष को शामिल न करे तो देश में ईडी, सीबीआई चीफ की नियुक्ति नहीं हो सकती। इसके अलावा इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति वाली कमेटी में भी नेता प्रतिपक्ष शामिल होता है।
क्या कभी ऐसा हुआ है कि नेता प्रतिपक्ष का पद न हो
हां, ऐसा कई बार हुआ है। पहली, दूसरी, तीसरी, छठी, सातवीं, आठवीं लोकसभा में यह पद खाली था। 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद कांग्रेस को 415 सीटों पर विजय मिली थी।
तब के लोकसभा के महासचिव सुभाष कश्यप बताते हैं कि उस समय भाजपा नई पार्टी थी और उसके केवल दो नेता थे। उस समय एक और नई पार्टी थी तेलुगु देशम पार्टी (TDP)। वही TDP जिसके साथ मिलकर BJP अभी सरकार बना रही है। उस समय TDP ने पहला चुनाव लड़ा था और 30 सीटें जीतकर वह दूसरे स्थान पर रही थी।
तब भी ‘लीडर ऑफ अपोजिशन इन पॉर्लियामेंट एक्ट 1977’ था, लेकिन कांग्रेस सरकार ने TDP नेता पी उपेंद्र को विपक्ष के नेता का पद देने से इनकार कर दिया था। उस समय लोकसभा स्पीकर दिग्गज कांग्रेस नेता बलराम जाखड़ थे।
कश्यप बताते हैं कि तब जाखड़ के कमरे में TDP के तीन सांसद गए थे और उन्होंने नेता प्रतिपक्ष को लेकर बात की थी। उन्हें ये बताया गया कि ये संभव नहीं होगा, क्योंकि हम हाउस ऑफ ऑफ कॉमन्स के उदाहरणों पर काम करते हैं। हाउस ऑफ कॉमन्स ब्रिटेन के निचले सदन को कहा जाता है।
TDP नेताओं को बताया गया था कि देश के पहले स्पीकर जीवी मावलंकर ने भी 1969 में बहुत छोटे विपक्ष के आधार पर बिना विपक्ष के पद के सदन चलाया था। उसी 10% के नियम के आधार पर आपको यह पद नहीं मिल सकता है।
पी उपेंद्र को संसदीय समूह और संसदीय दल का नेता माना गया, लेकिन उन्हें कभी विशेषाधिकार और प्रोटोकाल नहीं दिए गए। उन्हें कभी नेता प्रतिपक्ष के रूप में नॉमिनेट नहीं किया गया। इसके बाद 1989 में राजीव गांधी PM पद से इस्तीफा देकर विपक्ष में बैठे थे और वे नेता प्रतिपक्ष बने थे।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल भारद्वाज कहते हैं कि कानून को न मानते हुए स्पीकर के नियम को बनाने के पीछे सत्ता की मनमानी ही कारण है। जब कांग्रेस ने 1984 में 415 सीटें जीती थीं तो उसने 1977 के कानून को न मानते हुए पूर्व स्पीकर का नियम चलाया।
TDP तब बड़ी पार्टी थी, लेकिन उसे विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं दिया गया। जब 2014 में कांग्रेस की 44 सीटें आईं तब कांग्रेस ने बड़ी पार्टी होने के नाते नेता प्रतिपक्ष मांगा, लेकिन BJP ने उसे 1984 का उदाहरण देकर चुप करा दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने भी 10% के नियम को हटाने से मना किया
8 अगस्त 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने “मावलंकर के 10 प्रतिशत नियम” को रद्द करने से इनकार कर दिया था। इसी आधार पर पहली मोदी सरकार ने कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद देने से इनकार कर दिया था। इसके बाद कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट गई थी।
तत्कालीन चीफ जस्टिस आर.एम. लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि मावलंकर का नियम एक वैधानिक प्रावधान नहीं था, बल्कि सदन चलाने के लिए सदन के अध्यक्ष द्वारा विकसित की गई प्रक्रिया थी। कोर्ट ने कहा कि सदन में अध्यक्ष का फैसला न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता। अनुच्छेद 32 के तहत हम यहां राजनीतिक मुद्दों पर फैसला करने के लिए नहीं बैठे हैं।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता से कहा था कि आप खुद कह रहे है कि ये नोटिफाइड नहीं है। इसका मतलब है कि यह कहीं भी नहीं है। क्या स्पीकर के किसी ऐसे आदेश की सत्यता की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है? हम इस पर कोई ऑर्डर नहीं दे सकते।
कांग्रेस सांसद चाहते हैं राहुल गांधी बनें नेता प्रतिपक्ष
कांग्रेस के कई नेता चाहते हैं कि राहुल गांधी लोकसभा में विपक्ष के नेता बनें। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में भी उन्हें ही नेता प्रतिपक्ष चुना गया है, लेकिन फैसला राहुल को करना है।
तमिलनाडु के विरुधुनगर से कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने सबसे पहले ट्वीट करके कहा था कि मैंने अपने नेता राहुल गांधी के नाम पर वोट मांगे। मुझे लगता है कि उन्हें लोकसभा में कांग्रेस का नेता होना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि जीते हुए कांग्रेस सांसद भी यही सोचते होंगे। देखते हैं कि कांग्रेस संसदीय दल क्या फैसला करता है। हम एक लोकतांत्रिक पार्टी हैं।
उनकी मांग को समर्थन देते हुए कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने भी इस पर सहमति जताते हुए कहा है कि राहुल जी ने लीडरशिप की है। वे ही हमारे अभियान का चेहरा थे।
न केवल कांग्रेस के भीतर से ये आवाजें आ रही हैं, बल्कि गठबंधन के साथी शिवसेना के संजय राउत और विदुथलाई चिरुथिगल काची (वीसीके) के थोल थिरुमावलवन जैसे विपक्षी नेता भी राहुल को नेता प्रतिपक्ष बनता हुआ देखना चाहते हैं। इनका कहना है कि लोकसभा में राहुल को ही संसदीय दल की लीडरशिप की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
ऐसा नहीं है कि कभी गांधी परिवार से कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं रहा है। राहुल के पिता राजीव गांधी 1989 में नेता प्रतिपक्ष रहे हैं। इसके बाद उनकी मां सोनिया गांधी भी 1999 में पूरे पांच साल विपक्ष की नेता रही हैं।
अगर राहुल नहीं बने तो कौन हो सकता है नेता प्रतिपक्ष
यदि राहुल नेता प्रतिपक्ष नहीं स्वीकार करते हैं तो दूसरे नामों पर चर्चा हो सकती है। इसमें शशि थरूर, मनीष तिवारी, केसी वेणुगोपाल और लोकसभा में कांग्रेस के निवर्तमान उपनेता गौरव गोगोई जैसे वरिष्ठ कांग्रेस नेता हैं। इसमें एक पेंच ये है कि राज्यसभा में पहले से ही मल्लिकार्जुन खड़गे विपक्ष के नेता हैं। वो दक्षिण से आते हैं। ऐसे में लोकसभा का नेता भी दक्षिण से ही चुना जाए, यह मुश्किल है।
वरिष्ठ पत्रकार विजय पाठक कहते हैं कि इस लोकसभा में बोलने वाला नेता प्रतिपक्ष चाहिए। खास तौर वह नेता जिसकी हिंदी पर खासी कमांड हो। BJP गठबंधन से सरकार बना रही है। इस कारण इस बार का विपक्ष ज्यादा एग्रेसिव होगा। ऐसे में हिंदी बोलने वाला नेता होना चाहिए। पिछली बार अधीर रंजन चौधरी ने प्रयास खूब किया, लेकिन हिंदी में हाथ तंग होने के कारण उनकी बात आसानी से नहीं पहुंच पाती थी।