छत्तीसगढ़ का विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा 2 वजहों से खास और अलग है। पहला-ये 75 दिनों तक चलता है। दूसरा- इसमें रावण दहन नहीं होता, बल्कि रथ की परिक्रमा होती है। हर साल पाट जात्रा विधान से रस्म बस्तर दशहरा की शुरुआत होती है।
इस दौरान रथ घुमाए जाते हैं। रथ की चोरी भी हो जाती है। इस बीच तमाम रस्में चलती रहती हैं। इसके बाद मुरिया दरबार और फिर देवी विदाई के बाद दशहरा का समापन होता है। यह परंपरा करीब 616 सालों से चली आ रही है।
जानिए कैसे हुई बस्तर दशहरा की शुरुआत
बस्तर के तात्कालिक राजा पुरुषोत्तम देव भगवान जगन्नाथ स्वामी के भक्त थे। प्रभु के दर्शन करने के लिए उन्होंने बस्तर से जगन्नाथ पुरी तक दंडवत यात्रा की थी। कहा जाता है कि उनकी भक्ति से जगन्नाथ स्वामी बेदह खुश हुए थे।
जब राजा पुरुषोत्तम देव जगन्नाथ मंदिर पहुंचे तो मंदिर के प्रमुख पुजारी को स्वप्न में भगवान आए। उन्होंने कहा कि राजा की भक्ति से मैं प्रसन्न हुआ हूं। उपहार स्वरूप उन्हें रथपति की उपाधि दी जाए। एक रथ भी भेंट किया जाए।
इसके बाद अगले दिन पुजारी ने इसकी जानकारी राजा पुरुषोत्तम देव को दी। पुजारी ने पुरी में ही उन्हें रथपति की उपाधि दी और 16 चक्कों का विशाल रथ भी भेंट किया था। जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया था।
हालांकि, उस समय 16 चक्कों के 2 मंजिला रथ को बस्तर तक लाने के लिए सड़कें अच्छी नहीं थीं। इसलिए राजा ने रथ को 3 हिस्सों में बांट दिया था। इनमें दो रथ 4-4 चक्के का और एक रथ 8 चक्के का बनाया गया था।
वहीं एक 4 चक्के के रथ को बस्तर गोंचा के लिए दे दिया गया। एक अन्य 4 चक्के के रथ को फूल रथ और 8 चक्के के रथ को विजय रथ नाम दिया गया। ये दोनों रथ बस्तर दशहरा के लिए रखे गए।
दो गांवों के ग्रामीण बनाते हैं रथ
दशहरा पर्व के जानकार और पत्रकार अविनाश प्रसाद ने बताते हैं कि, बस्तर के बेड़ाउमड़ और झाड़उमर गांव के ग्रामीणों को रथ निर्माण की जिम्मेदारी दी गई थी। पूरे बस्तर में सिर्फ इन्हीं दो गांव के ग्रामीण मिलकर पीढ़ियों से रथ निर्माण करते आ रहे हैं।
बस्तर के माचकोट के जंगल से साल, बीजा की लकड़ी लाई जाती है। इसी से रथ का निर्माण किया जाता है। रथ बनाने वाले बुजुर्ग अपने घर के बच्चों को भी साथ लेकर आते हैं। इन्हें परंपरा से अवगत करवाया जाता है।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत कश्यप ने बताया कि नवरात्र की सप्तमी तक 4 चक्कों वाले फूलरथ कि परिक्रमा होती है। नवमी और विजयदशमी के दिन 8 चक्कों के विजय रथ की परिक्रमा करवाई जाती है। रथ सिर्फ किलेपाल गांव के ही ग्रामीण खींचते हैं।
बाहर और भीतर रैनी की भी परंपरा
बस्तर दशहरा में बाहर और भीतर रैनी की भी परंपरा है। ऐसा कहा जाता है कि जब ग्रामीण रथ खींचने आते थे और दशहरा के बाद राजा उन्हें पूछते नहीं थे। इस से नाराज ग्रामीण दशहरा की रात रथ को चोरी कर कुम्हडाकोट लेकर चले गए थे।
वहां रथ को छिपा दिया था। इसे भीतर रैनी कहा जाता है। अब भी यह परंपरा विजयदशमी की रात निभाई जाती है। रथ को लौटाने के लिए ग्रामीण राजा से शर्त रखते थे कि वे उनके गांव आएं और उनके साथ नवाखानी में शामिल हों।
उस दौर में भी राजा ने उनकी बात मानी थी और दूसरे दिन गए एकादशी को गांव पहुंचे। ग्रामीणों के साथ नवा खाना खाया था। ग्रामीण खुश हुए थे और उन्होंने रथ को राजा को सम्मान के साथ लौटा दिया था। ग्रामीण खुद ही रथ खींचते हुए राज भवन लेकर आए थे। इसे बाहर रैनी कहा जाता है।
अब जानिए क्यों 75 दिन चलता है उत्सव
दरअसल, हरेली अमावस्या से बस्तर दशहरा की शुरुआत मानी जाती है। इस दिन पाट जात्रा विधान किया जाता है। जंगल से रथ निर्माण के लिए लकड़ियां लाई जाती हैं और उनकी पूजा होती है। इसके बाद रथ निर्माण कार्य शुरू होता है। इसके बाद दूसरे जंगल से लकड़ी लाकर डेरी गढ़ाई की रस्म होती है।
जहां देवी की पूजा की जाती है। इन दोनों रस्मों के बीच करीब डेढ़ महीने का अंतर होता है। इसके करीब 15 दिन बाद काछनगादी की रस्म होती है और विधिवत रूप से बस्तर दशहरा शुरू हो जाता है। इसके चलते बस्तर दशहरा 75 दिनों तक चलता माना जाता है।
काछनगादी की रस्म से मिलती है दशहरा की अनुमति
नवरात्र से ठीक एक दिन पहले बस्तर राज परिवार के सदस्य काछनगुड़ी जाकर काछन देवी से बस्तर दशहरा मनाने और रथ परिक्रमा की अनुमति लेते हैं। काछनदेवी को रण की देवी भी कहा जाता है। पनका जाति की एक कुंवारी कन्या देवी का अनुष्ठान करती हैं।
इस बार भी यह रस्म पीहू अदा कर रही है। वह देवी अनुष्ठान कर रही है। पिछले 22 पीढ़ियों से इसी जाति की कन्या यह रस्म अदा कर रही है। उस पर देवी सवार होती हैं। इसके बाद बेल के कांटों से बने झूले पर झूलकर राज परिवार के सदस्यों को दशहरा मनाने की अनुमति दी जाती है।