60 साल के अखिलेश अपनी पत्नी आशा के साथ महाकुंभ मेला आए। पत्नी ने स्नान किया और वापस आ गईं। अखिलेश स्नान करने नदी में उतरे, इधर भीड़ बढ़ गई। पुलिस ने लोगों को जल्दी से घाट छोड़ने को कहा। अफरा-तफरी के बीच अखिलेश और आशा बिछड़ गए। अखिलेश के शरीर पर नाममात्र ही कपड़े थे। दूसरी तरफ आशा झोला उठाकर उन्हें इधर से उधर खोज रही थीं।
आशा अपने पति को खोजते हुए दोपहर 3 बजे भारत सेवा दल के खोया-पाया केंद्र पहुंचीं। सामने अखिलेश मिले, तो खुशी से आशा की आंखें भर आईं। अखिलेश की आंखें भी डबडबा गईं। आंसू बहने लगे। महाकुंभ में असल में यह कोई एक कहानी नहीं है। हर दिन दर्जनों लोग अपनों से बिछड़ते हैं और मिलने पर भावुक हो जाते हैं।
महाकुंभ मेले में दो तरह के भूले-भटके शिविर हैं। एक डिजिटल खोया-पाया केंद्र, जिसकी मेले में कुल 10 शाखाएं हैं। दूसरा भारत सेवा दल का खोया-पाया केंद्र, जिसकी दो शाखाएं हैं। दोनों की मुख्य शाखाएं सेक्टर-4 में त्रिवेणी मार्ग पर हैं। भारत सेवा दल का खोया-पाया केंद्र अभी डिजिटल नहीं हुआ है, लेकिन प्रभाव आज भी कम नहीं है।
रोते बुजुर्गों को अपनों की तलाश प्रयागराज महाकुंभ के सेक्टर-4 में त्रिवेणी मार्ग पर भारत सेवा दल का भूले-भटके शिविर है। 1946 में पहली बार इसी जगह पर इस शिविर की शुरुआत हुई थी। कोई ताम-झाम नहीं। आज भी काउंटर लगाकर 2 लोग बैठ जाते हैं।
हाथ में कलम और पर्ची होती है। जो लोग खोए हैं उनका नाम लिखकर पुकारा जाता है। बुलाया जाता है कि फलां व्यक्ति आपका इंतजार कर रहे हैं, जहां कहीं भी हों भूले-भटके शिविर पर चले आएं।
हम इस शिविर पर पहुंचे। कुछ महिलाएं बाहर बैठी थीं तो कुछ अंदर लेटी हुई थीं। सबकी निगाहें गेट की तरफ थीं, उन्हें किसी अपने का इंतजार था। जिसके साथ वह मेले में आए हैं, वह आएगा और उन्हें ले जाएगा। ऐसे ही हमारी मुलाकात बिहार से आए अखिलेश से हुई। अखिलेश एक चड्ढी में कुछ लोगों के साथ बैठे थे। जो साथ में थे उनके शरीर पर भी कपड़े नहीं थे। हमने वजह जाननी चाही।
अखिलेश कहते हैं, बिहार से संगम स्नान के लिए आए थे। पत्नी आशा देवी के अलावा कई और लोग साथ थे। संगम घाट पर सब नहाने के लिए गए तो हम कपड़ा देखने के लिए रुक गए। वो लोग नहाकर आए और कपड़ा चेंज करने लगे, तब हम नहाने के लिए गए। नदी के अंदर उतर गए, लेकिन तभी भीड़ आ गई। पुलिस लोगों से घाट खाली करने को कहने लगी।
अखिलेश से बात करने के बाद हम वहीं, बैठकर बाकी चीजें देखने लगे। अखिलेश लगातार गेट की तरफ देख रहे थे। इसी बीच उनकी पत्नी आशा आ गईं। आशा ने आते ही अखिलेश का हाथ पकड़ लिया। अखिलेश की आंखें भर गई। हमने तुरंत कैमरा ऑन किया और आशा से पूछा कि सुबह 7 बजे से 3 बजे तक कहां-कहां खोजा?
वह कहती हैं, ‘हम पूरे घाट पर खोजते रहे। फिर सेक्टर-3 में जाकर अनाउंस करवाया। सुबह 8 बजे से 2 बजे तक हम खोजते ही रहे।’ पति के मिलने के बाद आशा ने पहले उन्हें कपड़ा पहनाया और फिर हाथ पकड़कर अपने साथ ले गईं।
बेहद परेशान नजर आए अपनों को ढूंढते लोग इस भूले-भटके शिविर में काम कर रहे ज्यादातर लोग बड़ी जिम्मेदारी और गंभीरता के साथ अपना काम कर रहे हैं। अशोक तिवारी गुमशुदा की एंट्री लिखने का काम करते हैं। अपनों को ढूंढते हुए आ रहे लोग बेहद परेशान नजर आते हैं।
अशोक उनसे कहते हैं, ‘चिल्लाओ मत, धीरे-धीरे बोलो, जब घर से चली या चले थे तब तुम्हारे साथ बिटिया-बेटवा-दामाद चला था? उसका नाम बताओ। इनका गउना (गांव) का नाम बताओ। और जो जानकारी है वह बताओ।’
अशोक यह सब पूछते हैं और एक पर्ची पर लिखते चले जाते हैं। उनके हाथ में ऐसी ही करीब 10 पर्चियां थीं। जो लोग अपना नाम दर्ज करवा लेते, वह इस इंतजार में रहते कि जल्द ही मेले में लगे लाउड स्पीकर से उनके अपने लोगों का नाम पुकारा जाएगा। इस इंतजार में करीब 20 महिलाएं और 10 से ज्यादा पुरुष मौके पर थे। सभी बुजुर्ग थे। ज्यादातर के पास अपने लोगों का मोबाइल नंबर नहीं था।
2 घंटे में 5 मिनट का वक्त मिल रहा डिजिटल खोया-पाया केंद्र के चलते इन्हें लाउड-स्पीकर से खोए हुए लोगों को पुकारने का जो वक्त मिलता है वह अब कम हो गया है। हमने यही काम करने वाले कमलेश तिवारी से बात की।
वह कहते हैं, ‘मैं लोगों को मिलाने के लिए ही दिल्ली से यहां आया हूं। पहले हम लोगों का नाम पर्ची में लिखते हैं, फिर उनका नाम पुकारते हैं।’
हमने पूछा कि डिजिटल वाले पर अगर कोई आकर खड़ा है तो उसे कैसे पता चलेगा कि वह जिसे खोज रहा है वह आपके खोया-पाया केंद्र पर है? कमलेश कहते हैं, हम बीच-बीच में अपने वॉलंटियर्स वहां भेजते हैं, वह पर्ची लेकर जाते हैं और वहां के लोगों से मिलान करते हैं, अगर कोई मिलता है तो उसे बताते हैं कि आप जिसे खोज रहे हैं, वह हमारे यहां के शिविर में इंतजार कर रहा है।
शिविर में खाने-पीने की भी व्यवस्था उपलब्ध इस भूले-भटके शिविर की शुरुआत आज से 79 साल पहले 1946 के कुंभ मेले में शुरू हुई थी। उस वक्त पंडित राजाराम तिवारी ने इसकी शुरुआत की थी। अब इसकी जिम्मेदारी उनके बेटे उमेश चंद्र तिवारी संभाल रहे हैं। हमने पूछा कि डिजिटल खोया-पाया केंद्र बन जाने से क्या आपके सामने चुनौती आई?
उमेश कहते हैं, इस बार थाने-चौकी बढ़ गए। सभी मिलकर खोए हुए लोगों को अपने लोगों से मिला रहे हैं। बाकी मेला प्रशासन जो भी फैसला करे वह ठीक है।
हमने डिजिटल के बारे में पूछा तो वह कहते हैं, उनके सभी 10 खोया पाया केंद्र एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कोई एक खोता है तो सभी 10 स्थानों पर दिख जाता है। इसलिए हम लोग भी पर्ची लेकर उनके पास भेजते हैं, अगर कोई व्यक्ति अपनों को खोजते हुए किसी और सेंटर पर पहुंच गया है तो वहां से वह पता कर पाएगा कि फलां व्यक्ति कहां है। बाकी हमारे यहां हर व्यक्ति के लिए रहने-खाने की व्यवस्था है।