“बस्तर में ‘आमा पंडुम’ की अनोखी परंपरा: बिना पूजा आम तोड़ने पर जुर्माना, आमदनी का भी बड़ा जरिया”

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क्या है ‘आमा पंडुम’?

छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की एक अनोखी और सुंदर परंपरा है ‘आमा पंडुम’, जिसे ‘आम का त्योहार’ भी कहा जाता है। यह परंपरा आदिवासी समाज में पीढ़ियों से चली आ रही है। इस त्योहार का मुख्य उद्देश्य प्रकृति, पेड़ों और पूर्वजों के प्रति आभार जताना होता है।

बस्तर के हर गांव में आम के मौसम की शुरुआत से पहले यह त्योहार मनाया जाता है। आदिवासी समाज में यह विश्वास है कि जब तक पूजा-पाठ नहीं हो जाता, तब तक पेड़ से आम तोड़ना मना है। अगर कोई व्यक्ति इस परंपरा का उल्लंघन करता है, तो उस पर जुर्माना लगाया जाता है।


पूजा से पहले आम तोड़ना है वर्जित

  • बस्तर के गांवों में यह नियम है कि आमा पंडुम के आयोजन से पहले कोई भी व्यक्ति पेड़ से आम नहीं तोड़ सकता।

  • अगर कोई जानबूझकर या अनजाने में आम तोड़ता है, तो उस पर 5000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।

  • गांव के पंच और वरिष्ठ लोग इस नियम को लागू करते हैं और यह पूरे गांव के लिए अनिवार्य होता है।

उदाहरण:
बागमुंडी पनेड़ा गांव के ग्रामीण मद्दा, शिवराम हेमला और पायकु वेको ने बताया कि पहले भी लोगों पर जुर्माना लगाया गया है। इसलिए अब कोई इस परंपरा का उल्लंघन नहीं करता।


क्यों मनाया जाता है ‘आमा पंडुम’?

इस त्योहार का उद्देश्य सिर्फ आम का फल खाना या बेचना नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरी सांस्कृतिक भावना छुपी हुई है:

  1. प्रकृति की पूजा:
    आदिवासी समाज प्रकृति को मां मानता है। इसलिए आम के पेड़ को फल देने से पहले पूजा जाता है।

  2. पूर्वजों को श्रद्धांजलि:
    यह पर्व उनके पितरों (पूर्वजों) को समर्पित होता है। माना जाता है कि जिन लोगों ने आम के पेड़ लगाए, उन्हें इस अवसर पर याद किया जाना चाहिए।

  3. आर्थिक महत्व:
    आम बस्तर के आदिवासियों की कमाई का मुख्य जरिया है। इससे उन्हें आमदनी होती है, जो पूरे साल उनके काम आती है।

  4. सामूहिकता का प्रतीक:
    पूरा गांव मिलकर चंदा इकट्ठा करता है और पूजा-पाठ, भंडारा, और अन्य जरूरतों का खर्च उठाता है। यह सामूहिकता का सुंदर उदाहरण है।


आम ही है बस्तर की कमाई का स्तंभ

बस्तर के ग्रामीणों के लिए आम सिर्फ फल नहीं है, यह एक बड़ा आर्थिक साधन है।

  • गांव वाले आम को बाजारों में बेचते हैं।

  • कच्चे आम से अमचूर (सूखा आम पाउडर) बनाते हैं, जो व्यापारियों को बेचा जाता है।

  • यह व्यापार आदिवासियों की आर्थिक स्थिति मजबूत करता है और उनके परिवारों की जरूरतें पूरी करने में मदद करता है।


चंदा वसूली से होती है पूजा की तैयारी

‘आमा पंडुम’ के लिए गांववाले आपसी सहयोग से चंदा इकट्ठा करते हैं।

  • यह चंदा पूजन सामग्री, ढोल-नगाड़े, पकवान बनाने, और भंडारे के लिए इस्तेमाल होता है।

  • चंदा इकट्ठा करने के लिए कई बार सड़क किनारे अस्थाई नाके लगाए जाते हैं, जहां से गुजरने वाले लोगों से सहयोग राशि ली जाती है।

  • उदाहरण के तौर पर बागमुंडी पनेड़ा, किलेपाल और आसपास के गांवों के लोगों ने जगदलपुर-बीजापुर नेशनल हाईवे 63 पर अस्थाई नाका लगाकर राहगीरों से चंदा लिया।


सामाजिक अनुशासन का उदाहरण

बस्तर में ‘आमा पंडुम’ सिर्फ धार्मिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है, यह एक तरह से गांव के सामाजिक अनुशासन का भी प्रतीक है:

  • जब तक पूजा नहीं हो जाती, कोई भी व्यक्ति आम तोड़ने की हिम्मत नहीं करता।

  • यदि कोई गलती से भी तोड़ देता है, तो गांववाले मिलकर उस पर दंड लगाते हैं।

  • यह दिखाता है कि वहां के लोग परंपराओं के प्रति कितने संवेदनशील और एकजुट हैं।


जानकारों की राय: पूर्वजों का सम्मान है यह पर्व

बस्तर के वरिष्ठ पत्रकार और आदिवासी संस्कृति के जानकार हेमंत कश्यप बताते हैं कि:

“आमा तिहार या आमा पंडुम सिर्फ आम का त्योहार नहीं है, यह उन पितरों को याद करने का पर्व है जिन्होंने कभी आम के पेड़ लगाए थे।”

  • ग्रामीण इस अवसर पर अपने पूर्वजों को तर्पण (जल अर्पण) देकर श्रद्धांजलि देते हैं।

  • यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा बन चुकी है।


आधुनिकता और परंपरा का संगम

आज के डिजिटल युग में भी बस्तर के आदिवासी अपनी संस्कृति से जुड़ाव बनाए हुए हैं।

  • जहां एक ओर देशभर में लोग फल-फूल तोड़ने को सामान्य मानते हैं, वहीं बस्तर के लोग पेड़ से आम तोड़ने के पहले पूजा और संस्कार को आवश्यक मानते हैं।

  • यह हमें सिखाता है कि प्रकृति के साथ सम्मानपूर्वक रिश्ता कैसे बनाए रखा जा सकता है।


निष्कर्ष (Conclusion):

‘आमा पंडुम’ बस्तर की आदिवासी संस्कृति, प्रकृति प्रेम, सामाजिक अनुशासन और पूर्वजों के सम्मान का एक सुंदर मिलाजुला उदाहरण है। यह परंपरा न सिर्फ एक फल के लिए त्योहार है, बल्कि यह बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी सम्मान और समझदारी से किया जाना चाहिए।

बिना पूजा के आम तोड़ने पर जुर्माना लगाने की परंपरा हमें यह सिखाती है कि हर संसाधन के पीछे एक सामाजिक भावना और परंपरा जुड़ी होती है। आज के समय में जब पर्यावरणीय संकट गहराता जा रहा है, तब बस्तर की यह परंपरा पूरे देश के लिए एक प्रेरणास्रोत बन सकती है।

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