डॉ. दीपक सिन्हा द्वारा शासकीय अनुमति के बिना एल.एल.बी. की पढ़ाई प्रारंभ करने, अनुमति निरस्त होने के बावजूद चोरी-छिपे पढ़ाई जारी रखने तथा नियमित कक्षाओं में अनुपस्थिति जैसे गंभीर आरोप सामने आए हैं। जब एक सहायक प्राध्यापिका ने इस संबंध में आवाज़ उठाई, तो उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचकर उन्हें प्रताड़ित करने का प्रयास किया गया। यह षड्यंत्र ’33 पुस्तकों के दान’ के विवाद के रूप में सामने आया, जिसकी जांच के लिए गठित समिति की निष्पक्षता स्वयं संदेह के घेरे में है।
चौंकाने वाली बात यह है कि शिकायतकर्ता के निकट संबंधी होने के बावजूद डॉ. दीपक सिन्हा को ही जांच समिति में शामिल किया गया, जबकि वे उस समय निर्वाचन कार्य में संलग्न थे और चुनाव सम्पन्न होने के कई महीनों बाद भी नियमों के विरुद्ध चुनाव कार्य में ही संलंगन हैं। इतना ही नहीं, अनुमति निरस्त होने के बाद भी डॉ. सिन्हा ने लगभग एक वर्ष तक नियमों का उल्लंघन करते हुए पढ़ाई जारी रखी। उनके विरुद्ध शिकायतें होने के बावजूद सक्षम प्राधिकारी द्वारा उन्हें कार्योत्तर अनुमति प्रदान कर दी गई। यदि यह मामला बार काउंसिल तक पहुंचता है, तो न केवल डॉ. सिन्हा की एल.एल.बी. डिग्री संदेह के घेरे में आएगी, बल्कि अनुमति देने वाले अधिकारी की भूमिका पर भी गंभीर प्रश्न उठेंगे।
एल.एल.बी. की अनियमितता से शुरू हुई शिकायत, षड्यंत्र की जड़ बनी
डॉ. दीपक सिन्हा ने वर्ष 2020–21 में बिना शासकीय अनुमति के एल.एल.बी. की पढ़ाई प्रारंभ की। जब एक सहायक प्राध्यापिका ने तत्कालीन प्राचार्य डॉ. पी.सी. चौबे को इस बारे में सूचित किया, तो उनसे कोई कार्रवाई करने के बजाय उल्टे शिकायतकर्ता को प्रताड़ित करने की योजना बनाई गई। इसी समय ’33 पुस्तकों के दान’ की एक विवादास्पद शिकायत सामने आई, जो दीपक सिन्हा के रिश्तेदार द्वारा की गई, जिससे मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाया गया।
जांच समिति की लापरवाही और पूर्वनियोजित रिपोर्ट
1. पुस्तकालय प्रभारी की पहचान में भ्रम: समिति ने पुस्तकालय प्रभारी के रूप में के.के. तिवारी का नाम दर्शाया, जबकि दस्तावेज़ों में स्पष्ट रूप से एम.एल. साकार का नाम अंकित है। यह एक गंभीर त्रुटि है, जो जांच की सतही प्रवृत्ति को उजागर करती है।
2. शिकायत और तथ्यों में विरोधाभास: शिकायतकर्ता मनीष मुंधड़ा का दावा है कि उन्होंने वर्ष 2015–16 में तत्कालीन प्राचार्य डॉ. डी.एन. वर्मा से अनुमति लेकर पुस्तकें दान की थीं, जबकि रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि डॉ. वर्मा वर्ष 2018 में प्राचार्य बने। यह तथ्य न केवल शिकायत की असत्यता को दर्शाता है, बल्कि समिति की असावधानी को भी उजागर करता है।
3. पुस्तकों का वास्तविक स्वामित्व अस्पष्ट: दस्तावेज़ों से यह स्पष्ट होता है कि मनीष मुंधड़ा ने पुस्तकें विधिवत महाविद्यालय को दान नहीं की थीं, बल्कि उन्हें अपने रिश्तेदार डॉ. दीपक सिन्हा को सौंपी थीं। डॉ. सिन्हा ने एक चपरासी के माध्यम से पुस्तकें रसायन विभाग में लेकर आए और तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ. शिप्रा वर्मा की सहायता से उन्हें स्टाफ रूम की अलमारी में रखवाया। यदि पुस्तकें वास्तव में दान की जातीं, तो उनका निजी स्वामित्व समाप्त हो जाता। स्पष्ट है कि जानबूझकर दान की प्रक्रिया को पूरा नहीं किया गया।
इतना ही नहीं, इन पुस्तकों को “आओ, स्वयं निर्गत कर लो” की अनौपचारिक व्यवस्था के अंतर्गत अलमारी में रखा गया और उनकी देखरेख की जिम्मेदारी एक चपरासी को सौंपी गई। समिति के सदस्य विनोद जेना ने स्वयं इन पुस्तकों को निर्गत किया था। उन्होंने “नवबोध” और “प्रबोध” नामक पुस्तकें स्वयं के लिए निर्गत कीं, जबकि रिपोर्ट में इन्हीं पुस्तकों को ‘विश्वस्तरीय संदर्भ ग्रंथ’ बताया गया है। इसका अर्थ है कि पुस्तकें न तो महाविद्यालय को और न ही विभाग को विधिवत दान की गई थीं, और न ही प्रति वर्ष उन पाठ्य सामग्रियों का भौतिक सत्यापन किया गया था।
4. बिना दस्तावेजीय साक्ष्य के निष्कर्ष: समिति ने न तो शिकायत का गंभीर अध्ययन किया, न ही पुस्तक रजिस्टर अथवा अन्य अभिलेखों से उसका मिलान किया। न तो कोई पावती उपलब्ध थी, न रसीद, न ही कोई शासकीय स्वीकृति पत्र—फिर भी समिति ने अपनी रिपोर्ट में पुस्तकों के दान को प्रमाणित कर दिया।
5. “महाविद्यालय में इन-बिल्ट लाइब्रेरी की सुविधा उपलब्ध है तथा लगभग प्रत्येक विभाग में बैठने की व्यवस्था संबंधित विभाग की लाइब्रेरी में भी की गई है। रसायन शास्त्र विभाग के वर्तमान विभागाध्यक्ष की बैठक व्यवस्था आज तक उसी इन-बिल्ट लाइब्रेरी में ही है। ऐसे में यह अत्यंत हास्यास्पद है कि जांच समिति ने एक सहायक प्राध्यापिका को मात्र लाइब्रेरी में बैठने के आधार पर पुस्तकों के लिए उत्तरदायी ठहराया। और भी अधिक हास्यास्पद यह तथ्य है कि स्वयं समिति के सदस्य उस स्टाफ रूम में बैठते थे, जहाँ दीपक सिन्हा द्वारा वे संदिग्ध पाठ्य सामग्री रखवाई गई थी।
6. “इतना ही नहीं, तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ. शिप्रा वर्मा के बयान को भी जांच समिति द्वारा स्पष्ट रूप से अपभ्रंशित (तोड़-मरोड़ कर) प्रस्तुत किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि सहायक प्राध्यापिका को मौखिक रूप से प्रभार दिया गया था—जिस कथित ‘बयान’ की प्राध्यापकों द्वारा सार्वजनिक रूप से खिल्ली उड़ाई जा रही थी। परंतु जब आरटीआई के माध्यम से संपूर्ण दस्तावेज प्राप्त हुए, तो यह तथ्य सामने आया कि डॉ. शिप्रा वर्मा ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि ‘सहायक प्राध्यापिका को प्रभार लेने के लिए कहा गया था’। समिति ने इस लिखित वक्तव्य को भी तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया.
7. “समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख किया कि तत्कालीन लाइब्रेरी प्रभारी प्रवीण शर्मा द्वारा वह संदिग्ध पाठ्य सामग्री सहायक प्राध्यापिका को सौंपी गई थी। किंतु जब आरटीआई के माध्यम से प्राप्त मूल दस्तावेजों का अध्ययन किया गया, तो यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आया कि प्रवीण शर्मा ने वह सामग्री सीधे तत्कालीन विभागाध्यक्ष को सौंपी थी, न कि सहायक प्राध्यापिका को। यह तथ्य समिति की रिपोर्ट और वास्तविक साक्ष्यों के बीच न केवल स्पष्ट विरोधाभास को उजागर करता है, बल्कि एक सुनियोजित षड्यंत्र की भी ओर संकेत करता है!
गोपनीय रिपोर्ट का लीक होना: समिति के ही सदस्य द्वारा गोपनीय जांच रिपोर्ट को लीक कर एक समाचार पत्र में प्रकाशित कराया गया, जिससे समिति की निष्पक्षता और गोपनीयता दोनों पर प्रश्नचिन्ह लग गया। यह न केवल नैतिक रूप से अनुचित है, बल्कि शासकीय गोपनीयता उल्लंघन का गंभीर मामला है।
फलस्वरूप, तत्कालीन आयुक्त द्वारा जांच समिति को बदलने के निर्देश दिए गए।
निष्कर्ष
यह सम्पूर्ण प्रकरण डॉ. दीपक सिन्हा की अनधिकृत एल.एल.बी. पढ़ाई और उस पर कार्रवाई से बचने के प्रयासों से प्रारंभ हुआ। ’33 पुस्तकों का दान’ केवल एक बहाना बना, जिससे मूल शिकायतकर्ता सहायक प्राध्यापिका को प्रताड़ित किया जा सके। जांच समिति का दायित्व सत्य की निष्पक्ष पड़ताल करना था, परंतु समिति ने पक्षपात और लापरवाही का उदाहरण प्रस्तुत किया। और दीपक सिन्हा की प्रभावशीलता से प्रभावित होकर सिन्हा को बचाने की कोशिश की तथा शिकायतकर्ता सहायक प्राध्यापिका को सबक सिखाने हेतु षड्यंत्र रचा ताकि सिन्हा के खिलाफ कोई आवाज न उठा सके।
पूर्व में गठित इस समिति, जिसमें दीपक सिन्हा, अर्चना असाटकर, विनोद जेना, डॉ. संजय घोष और डॉ. एस.के. पटले शामिल थे, ने अपने आचरण से न केवल निष्पक्षता के मानकों को तोड़ा, बल्कि संस्था की गरिमा को भी आघात पहुँचाया। अब जबकि समस्त तथ्य और साक्ष्य उजागर हो चुके हैं, यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि दोषी समिति सदस्यों और दीपक सिन्हा के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए, ताकि भविष्य में इस प्रकार की पक्षपातपूर्ण कार्यशैली की पुनरावृत्ति न हो।
“सहायक प्राध्यापिका द्वारा समस्त तथ्यों एवं प्रमाणों सहित उच्च स्तर पर शिकायत प्रस्तुत की गई है। अब देखने योग्य यह है कि नियम केवल दस्तावेज़ों तक सीमित हैं या उनका वास्तविक क्रियान्वयन भी सुनिश्चित किया जाता है।”