“ना पैसा चाहिए, ना नौकरी– सिर्फ परिवार चाहिए: सरेंडर कर रहे नक्सली”

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छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलवाद से जुड़े आदिवासी युवा अब वापस घर लौट रहे हैं। यह वापसी पैसा, नौकरी या जमीन के लालच में नहीं, बल्कि अपनों के साथ शांति से जीवन बिताने की चाह में हो रही है।

सरकार ने आत्मसमर्पण करने वालों के लिए नौकरी, मकान, जमीन और नकद राशि जैसी योजनाएं चला रखी हैं, लेकिन जो युवा सरेंडर कर रहे हैं, उनका कहना है- हमें पैसा नहीं, सुकून और शांति चाहिए। दैनिक भास्कर ने जब आत्मसमर्पण करने वाले कुछ युवाओं से बातचीत की, तो उनका साफ कहना था- हम अब जंगल में खानाबदोशों की तरह नहीं जीना चाहते।

पूर्व नक्सली (पहचान उजागर नहीं की जा रही) से चर्चा करते बस्तर के ब्यूरो चीफ मो. इमरान नेवी।

नक्सलियों के टारगेट न बनें, इसलिए सेफ हाउस में रखा

सरेंडर करने वाले युवा नक्सलियों के निशाने पर होते हैं। कई को पुलिस लाइन, कैंप या सेफ हाउस में रखा गया है। कुछ को फोर्स में नौकरी भी दी गई है, जिनके घर संवेदनशील इलाकों में हैं, उन्हें गांव नहीं लौटने दिया जा रहा।

हथियार छूटने में 15 साल लगे

सुकमा के अंदरुनी गांव में रहने वाले देव पोड़ियाम (परिवर्तित नाम) बताते हैं- 20 साल की उम्र में नक्सली संगठन जॉइन किया था। अभी 35 साल के हैं। जब घर छोड़ा था तब उनके पास 10 एकड़ पुश्तैनी खेत थे। उनके संगठन में जाने के बाद से घर पर किसी ने खेती नहीं की है। 15 साल जंगल में भटकने के बाद समझ आया कि अपनों का विकास अपनों के साथ ही हो सकता है। उसे सरकारी नौकरी मिलनी है पर अब नहीं चाहिए।

गांव का सुकून जंगल में नहीं बीजापुर के चैतु मड़काम (परिवर्तित नाम) कहते हैं कि नक्सलियों के साथ रहने पर परिवार से दूर हो गए थे। जब गांव में थे तो महुआ, इमली, तेंदूपत्ते से ठीक आय हो जाती थी। शाम होते ही परिवार के लोग रिश्तेदार, दोस्त एक जगह जमा होते थे। नक्सल संगठन में जाने के बाद कभी भी शांत मन से जंगल में नहीं रह पाया। लंबा समय जंगल में बिताने के बाद समझ में आया कि गांव का विकास गांव में रहते हुए भी तो किया जा सकता है।

परिवार, दोस्त सब छूट गए

नारायणपुर के अबूझमाड़ के देवली कोर्राम (परिवर्तित नाम) कहते हैं कि हमारे स्कूल की दीवारों पर नक्सली नारे लिखे रहते थे। मीटिंग में नक्सली आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों की बातें करते थे। बाद में गांव के कुछ लोगों के साथ मैं भी संगठन से जुड़ गया। ट्रेनिंग के बाद दिन-रात जंगल में बीतने लगे। धीरे-धीरे समझ आया कि जिनकी मदद के लिए जुड़े थे, उनकी मदद कर नहीं पा रहे। अब सरेंडर कर खेती में लग गया हूं।

कैंप खुले, गांव सुरक्षित हुए, तो वापसी मुमकिन गांव-गांव में फोर्स के कैंप खुल रहे हैं। जहां कैंप हैं, वहां से 5 किमी का इलाका पुलिस के प्रभाव में है। ऐसे गांवों में नक्सलियों का आना-जाना कम हुआ है, जिससे सरेंडर करने वाले घर लौट पा रहे हैं।

5 साल में 3127 ने किया सरेंडर, 2800 गांव लौटे बस्तर रेंज के आईजी सुंदरराज पी. ने बताया- 5 साल में 3127 ने सरेंडर किया। इनमें से 2800 गांव लौट चुके हैं। 90% नक्सलियों ने कोई सुविधा नहीं मांगी। वे सिर्फ शांति से जीना चाह रहे हैं।

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