27 फरवरी 1931 – अल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद
सुबह का वक्त, पार्क के कोने में दो लोग धीरे-धीरे चलते हुए एक बेंच पर आकर बैठे। एक थे देश के प्रखर क्रांतिकारी पंडित चंद्रशेखर आज़ाद, और उनके साथ थे उनके युवा साथी – सुखदेव राज। अभी वे एक नेता के घर से लौटे थे, लेकिन आज़ाद के चेहरे की गंभीरता बता रही थी कि भीतर कुछ उथल-पुथल है।
“राज… भगत, राजगुरु, सब जेल में हैं… ये ज्वाला बुझने नहीं देनी है,” आज़ाद ने दृढ़ स्वर में कहा। सुखदेव राज शांत रहकर सुनते रहे।
कुछ देर बाद आज़ाद ने देखा कि पार्क में संदिग्ध हलचल है। चारों ओर घेरा कस चुका था। तभी एक मोटरकार रुकी, जिसमें अंग्रेज अफसर नॉट बावर और उसके सिपाही थे। सवाल-जवाब की नौबत ही नहीं आई—सीधे गोलियां चलीं। एक गोली आज़ाद की जांघ में लगी, उनकी गोली ने बावर के कंधे को चीर दिया।
गोलियां बरसने लगीं। आज़ाद ने सुखदेव राज से कहा – “राज, तू भाग।” आदेश मानते हुए सुखदेव राज वहां से निकल गए और चांद प्रेस पहुंचे। कुछ ही देर में इलाहाबाद की फिज़ा में गोलियों की आवाज थम गई—लेकिन देश ने अपना एक वीर सपूत खो दिया।
गुमनामी की ओर सफ़र
उस दिन के बाद सुखदेव राज अंग्रेजों की नज़रों से ओझल हो गए। कई ठिकाने बदलते हुए वे आज़ादी की लड़ाई में जुटे रहे। लेकिन 1947 के बाद उन्होंने किसी राजनीतिक पद या प्रसिद्धि की चाह नहीं की।
1963 में विनोबा भावे की सलाह पर वे छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के अंडा गांव पहुंचे, जहां कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए आनंद आश्रम की स्थापना की। भगवा वस्त्र पहनकर उन्होंने गरीब बच्चों को पढ़ाया, बीमारों की सेवा की और चुपचाप समाज के बीच जीते रहे। गांव वाले उन्हें “स्वामीजी” कहकर जानते थे, लेकिन शायद ही किसी को मालूम था कि वह चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम साथी हैं।
पेंशन का व्यंग्यभरा पत्र
हालांकि उन्हें पेंशन लेने में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन नेताओं के आग्रह पर उन्होंने आवेदन किया। कार्यवाही अटकने पर उन्होंने दुर्ग कलेक्टर को पत्र लिखा, जिसमें तंज कसा—”कवि फिरदौसी को पेंशन की मुहरें जनाजे के वक्त मिलीं, उम्मीद है आपके ऑफिस में इतनी देर नहीं होगी।”
अंतिम दिन और स्मारक
5 जुलाई 1973 को सुखदेव राज का निधन दुर्ग के कुष्ठ सेवा केंद्र में हुआ। 1976 में अंडा गांव में उनके सेवा स्थल पर प्रतिमा और स्मारक बनाए गए, लेकिन उन्हें वह राष्ट्रीय सम्मान कभी नहीं मिला जिसके वे हकदार थे।
वो सिर्फ़ एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, बल्कि उन चुनिंदा क्रांतिकारियों में से थे जिन्होंने गोलियों के बीच साथियों को बचाया, और फिर गुमनाम होकर सेवा में जीवन बिताया।