राष्ट्रपति का कोर्ट से सलाह मांगना सही; राय बदल सकती है, फैसला नहीं
सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को हुई सुनवाई में राष्ट्रपति और राज्यपालों के विधेयकों पर हस्ताक्षर करने की समय-सीमा तय करने को लेकर अहम टिप्पणियां सामने आईं। अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राय मांगी है, और यह कदम पूरी तरह सही है।
⚖️ कोर्ट की टिप्पणी
-
राष्ट्रपति सलाहकारी अधिकारिता (Advisory Jurisdiction) में हैं, न कि अपील अधिकारिता (Appellate Jurisdiction) में।
-
अदालत किसी फैसले पर राय बदल सकती है, लेकिन पुराने फैसले को खत्म नहीं कर सकती।
-
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि सलाहकारी क्षेत्र में भी फैसले रद्द किए जा सकते हैं, जिस पर CJI ने साफ किया: “राय बदली जा सकती है, फैसला नहीं।”
️ विवाद की पृष्ठभूमि
-
यह मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच टकराव से शुरू हुआ।
-
गवर्नर ने कई बिल रोक रखे थे।
-
8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।
-
कोर्ट ने कहा था कि राष्ट्रपति को भी गवर्नर से भेजे गए बिल पर 3 महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।
⚖️ कोर्टरूम हाइलाइट्स
-
सुनवाई CJI बीआर गवई की अगुवाई वाली 5 जजों की बेंच (जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर) ने की।
-
सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता मौजूद थे।
-
केरल की ओर से वरिष्ठ वकील केके वेणुगोपाल और तमिलनाडु की ओर से अभिषेक मनु सिंघवी पेश हुए।
राष्ट्रपति के 14 सवाल
15 मई को राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 प्रश्न पूछे थे।
ये सवाल मुख्य रूप से अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़े हैं – यानी राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों और समयसीमा को लेकर।
कोर्ट का मानना है कि इस मुद्दे का असर पूरे देश पर पड़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट के 4 अहम पॉइंट्स
-
बिल पर निर्णय ज़रूरी – राष्ट्रपति को बिल या तो मंजूर करना होगा या अस्वीकार।
-
ज्यूडिशियल रिव्यू संभव – राष्ट्रपति के निर्णय की समीक्षा की जा सकती है।
-
3 महीने की सीमा – राष्ट्रपति को गवर्नर से आए बिल पर 3 महीने में फैसला करना होगा।
-
बार-बार वापसी नहीं – विधानसभा द्वारा फिर से पास किए गए बिल को राष्ट्रपति को अंतिम निर्णय के साथ निपटाना होगा।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं
-
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (17 अप्रैल): अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। SC का दखल लोकतांत्रिक शक्तियों पर ‘न्यूक्लियर मिसाइल’ जैसा।
-
कपिल सिब्बल (18 अप्रैल): राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया, असली शक्ति कैबिनेट के पास। जब कार्यपालिका चुप रहती है, तो न्यायपालिका को दखल देना ही पड़ता है।
✍️ निचोड़
यह विवाद सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश में राष्ट्रपति और राज्यपालों की भूमिका को लेकर नया मानक तय कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट साफ कर चुका है कि संविधान में दिए अधिकार अनिश्चितकाल तक टाले नहीं जा सकते।