मनोज बाजपेयी: संघर्ष, नाकामियों और डिप्रेशन से निकलकर बने बॉलीवुड के असली ‘एक्टर’

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कभी ‘भीखू म्हात्रे’ तो कभी ‘समर प्रताप सिंह’, कभी ‘सरदार खान’ तो कभी ‘श्रीकांत तिवारी’… मनोज बाजपेयी ने अपने करियर में ऐसे-ऐसे किरदार निभाए हैं जिन्हें लोग आज भी कल्ट क्लासिक मानते हैं। उनकी एक्टिंग इतनी नैचुरल और असरदार रही है कि दर्शक आज भी उनके पुराने रोल्स को सोशल मीडिया पर रील और मीम्स के रूप में शेयर करते रहते हैं।

लेकिन इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं था। ‘बैंडिट क्वीन’ से शुरुआत, बार-बार रिजेक्शन, आर्थिक तंगी, टूटे रिश्ते, आत्महत्या का ख्याल और लंबे संघर्ष—मनोज की यात्रा किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।


बिहार से दिल्ली तक का सफर

मनोज बाजपेयी का जन्म बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक गांव बेलवा में हुआ। हालांकि उनकी जड़ें रायबरेली (उत्तर प्रदेश) से भी जुड़ी हैं। बचपन शर्मीला और कमजोर बीता, लेकिन इंटर के बाद वह आत्मविश्वासी बन गए। पिताजी किसान थे और चाहते थे कि बेटा डॉक्टर बने, मगर मनोज के दिल में कुछ और ही ख्वाब पल रहा था—एक्टर बनने का।


फिल्मों का जुनून विरासत में

उनके पिता को भी फिल्मों का शौक था। यहां तक कि उन्होंने एफटीआईआई का ऑडिशन भी दिया था। शायद यही वजह थी कि एक्टिंग का कीड़ा मनोज के अंदर भी बचपन से था। जब उन्होंने मां को अपना सपना बताया तो मां ने हिम्मत बंधाई, मगर पिता से उन्होंने झूठ बोला कि दिल्ली जाकर बीएससी करेंगे। जेब में केवल 500 रुपये लेकर वो दिल्ली पहुंचे और थिएटर की राह पकड़ ली।


संघर्ष और नाकामियां

दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन मुश्किल से मिला। पैसे की तंगी इतनी थी कि दोस्तों के कपड़े पहनने पड़ते। उन्होंने एनएसडी (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) के लिए तीन बार कोशिश की, मगर हर बार फेल हो गए। एक वक्त ऐसा आया जब उन्होंने खुदकुशी का भी सोचा, लेकिन दोस्तों ने संभाल लिया।

इसके बाद वह बैरी जॉन से जुड़े और रंगमंच पर अपनी पहचान बनाई। उनका नाटक ‘नेटुआ’ इतना लोकप्रिय हुआ कि वह रातों-रात थिएटर स्टार बन गए।


‘बैंडिट क्वीन’ और मायूसी

1994 में शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ से उन्हें पहला मौका मिला। उन्होंने डाकू मान सिंह का रोल किया, लेकिन यह किरदार उन्हें पहचान नहीं दिला पाया। मुंबई आकर उन्होंने काम तलाशा, पर हर जगह रिजेक्शन मिला। कई बार तो शूटिंग से निकाल दिया गया। हालत इतनी खराब हो गई कि खाने के पैसे भी नहीं रहते थे।


टूटी शादी और डिप्रेशन

दिल्ली में थिएटर के दौरान मनोज का दिल दो बार टूटा। पहली शादी भी ज्यादा नहीं चली और पत्नी ने अलग रास्ता चुन लिया। इस सदमे से मनोज डिप्रेशन में चले गए। कई बार उन्हें लगता कि उन्होंने करियर और निजी जीवन दोनों खो दिए।


महेश भट्ट बने सहारा

इन्हीं संघर्षों के बीच महेश भट्ट ने उन्हें दूरदर्शन के शो ‘स्वाभिमान’ में काम दिया। यहां से उन्हें पहचान मिली और खाने-रहने की चिंता कम हुई। लेकिन बड़े पर्दे पर सफलता अभी दूर थी।


‘सत्या’ और भीखू म्हात्रे

रामगोपाल वर्मा ने मनोज को पांच साल तक ढूंढा। आखिरकार 1998 में उन्हें ‘सत्या’ में भीखू म्हात्रे का रोल मिला। इस किरदार ने उनका करियर बदल दिया। डायलॉग “मुंबई का किंग कौन?” दर्शकों की जुबान पर चढ़ गया। फिल्म हिट हुई और मनोज स्टार बन गए।


सफलता के बावजूद बेरोजगारी

दिलचस्प बात यह है कि ‘सत्या’ जैसी ब्लॉकबस्टर के बाद भी उन्हें काम नहीं मिला। कई महीनों तक घर पर बैठना पड़ा और डायरेक्टर-प्रोड्यूसर से काम मांगना पड़ा। लेकिन धीरे-धीरे ‘शूल’, ‘अक्स’, ‘कौन’, और बाद में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ ने उन्हें एक सशक्त अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया।


असली मुकाम और नेशनल अवॉर्ड्स

2000 के बाद से मनोज ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्हें अब तक चार नेशनल अवॉर्ड मिल चुके हैं—‘सत्या’, ‘पिंजर’, ‘भोंसले’ और ‘गुलमोहर’ के लिए।

आज ‘फैमिली मैन’ जैसे वेब शो से लेकर फिल्मों तक, वह हर बार साबित करते हैं कि स्टारडम चमक-दमक से नहीं, बल्कि किरदारों में जान डालने की कला से मिलता है।


मनोज बाजपेयी की कहानी उन सभी स्ट्रगलर्स के लिए सबक है जो बार-बार असफल होकर हार मान जाते हैं। असली जीत उन्हीं की होती है जो टूटकर भी अपने सपनों को नहीं छोड़ते।

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