चीन के ऑटो सेक्टर में ईवी क्रांति ने जिस तेज़ी से कदम बढ़ाए हैं, उसने पारंपरिक पेट्रोल कारों की जमीन ही खिसका दी है। देश में अब हर दूसरी नई कार इलेक्ट्रिक हो चुकी है, और इसका असर सीधा चीन के विशाल पेट्रोल वाहन उद्योग पर पड़ा है। वे कारखाने जो कभी लाखों पेट्रोल गाड़ियाँ बनाकर घरेलू बाज़ार को खपाते थे, अब गाड़ियों के ढेर से भर चुके हैं। ग्राहक बदल गए हैं, उनकी प्राथमिकताएँ बदल गई हैं, सरकार की नीतियाँ तेज़ी से ईवी की तरफ मुड़ चुकी हैं—नतीजा यह कि चीन में तैयार लाखों पेट्रोल कारों के लिए अब कोई खरीदार बचा ही नहीं।
सवाल यह था कि इन गाड़ियों का किया क्या जाए। चीन ने समाधान उत्पादन कम करने में नहीं, बल्कि दुनिया की ओर रुख करने में खोजा। पेट्रोल कारें जिन्हें चीन में कोई पूछ नहीं रहा, अब अफ्रीका, दक्षिण एशिया, लैटिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप के देशों की ओर धकेली जा रही हैं। विश्लेषक इसे एक तरह का “वैश्विक प्रदूषण निर्यात” मॉडल बताते हैं—जहाँ पर्यावरण-अनुकूल नीतियाँ तो चीन के अंदर अपनाई जा रही हैं, लेकिन उनके पुराने, पेट्रोल आधारित स्टॉक को बाकी देशों की सड़कों पर उतार दिया जा रहा है।
चीन के इस कदम ने वैश्विक ऑटो मार्केट में एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। दुनिया भर की कंपनियाँ पहले ही इलेक्ट्रिक ट्रांजिशन की दिशा में संघर्ष कर रही हैं। यूरोप में कड़े उत्सर्जन नियम हैं, अमेरिका में हाइब्रिड और ईवी की रफ्तार बढ रही है, और भारत भी धीरे-धीरे इलेक्ट्रिक की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में चीन की यह पेट्रोल कारों की बाढ़ कई देशों के लिए एक दुविधा बन सकती है—सस्ते दामों पर उपलब्ध कारें लोगों को आकर्षित जरूर करेंगी, लेकिन वे स्थानीय उद्योगों पर भारी दबाव डालेंगी और प्रदूषण के बोझ को और बढ़ाएंगी।
सबसे बड़ा सवाल यही है कि बाकी देश इस चुनौती का मुकाबला कैसे करेंगे। क्या वे चीन से आई इन पेट्रोल कारों को अपनाएँगे, या अपने ऑटो उद्योग और पर्यावरणीय लक्ष्यों को बचाने के लिए सख्त नीतियाँ लेकर आएँगे? और क्या चीन की यह पेट्रोल-सुनामी वैश्विक ऑटोमोबाइल बाज़ार की दिशा हमेशा के लिए बदल देगी—यह आने वाले वर्षों में साफ हो पाएगा।