छत्तीसगढ़ में जमीन की नई कलेक्टर गाइडलाइन लागू होने के बाद अचानक बढ़ी कीमतों से मचे बवाल के बीच सरकार ने अब अपना रुख बदल लिया है। रजिस्ट्रेशन विभाग ने शहरों में लागू की गई नई दरों और वैल्यूएशन की व्यवस्था की दोबारा समीक्षा का फैसला किया है। इसके तहत सेंट्रल वैल्यूएशन बोर्ड ने राज्य के सभी जिलों से नई रिपोर्ट तलब कर ली है, जिससे साफ संकेत मिल रहा है कि सरकार अब पूरे मामले पर फिर से विचार करने के मूड में है।
सेंट्रल वैल्यूएशन बोर्ड की बैठक के बाद इंस्पेक्टर जनरल ऑफ रजिस्ट्रेशन और सुपरिटेंडेंट ऑफ स्टैंप्स की ओर से नई रिवाइज्ड गाइडलाइंस जारी कर दी गई हैं। इन नई गाइडलाइंस में कुल छह बड़े बदलाव किए गए हैं और सभी जिला मूल्यांकन समितियों को निर्देश दिया गया है कि वे 31 दिसंबर 2025 तक नए सिरे से प्रस्ताव तैयार कर जमा करें। हाल ही में बढ़े रेट्स के खिलाफ आए मेमोरेंडम, आपत्तियों और सुझावों की गहराई से समीक्षा करने के बाद ही आगे की प्रक्रिया पूरी की जाएगी।
इस पूरे विवाद की शुरुआत तब हुई थी जब 9 नवंबर को छत्तीसगढ़ सरकार ने जमीन की दरों और रजिस्ट्रेशन फीस में भारी बढ़ोतरी का आदेश जारी किया। इसके बाद कई इलाकों में जमीन की कीमतें सीधे पांच से नौ गुना तक बढ़ गईं। हालात ऐसे बने कि 10 लाख रुपये की जमीन की कीमत रातों-रात 70 लाख रुपये तक पहुंच गई। इससे आम लोग, किसान और व्यापारी बुरी तरह परेशान हो गए और राज्यभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए।
इस फैसले के खिलाफ 1 दिसंबर को दुर्ग में जोरदार प्रदर्शन हुआ, जहां हालात इतने बिगड़ गए कि पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। प्रदर्शन कर रहे व्यापारियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया, जिसमें कई लोग घायल हो गए। इस घटना ने सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दीं। पुलिस ने कलेक्टोरेट और रजिस्ट्रार कार्यालय के आसपास भारी संख्या में बल तैनात कर दिया था। कांग्रेस पार्टी भी खुलकर इस विरोध में उतर आई और जगह-जगह पुतले जलाकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया गया।
राजनीतिक प्रतिक्रिया भी तेज हो गई। रायपुर से सांसद बृजमोहन अग्रवाल ने पहले मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर नए फैसले को तत्काल स्थगित करने की मांग की थी। इसके बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि सरकार बिना अध्ययन और जनसुनवाई के ऐसे फैसले ले रही है, जो प्रदेश की आर्थिक रीढ़ पर सीधा हमला है। उनका कहना था कि नई गाइडलाइन से भूमि अधिग्रहण में ज्यादा मुआवजा मिलने की बात भ्रामक है, क्योंकि इसका फायदा सिर्फ एक प्रतिशत किसानों को होगा, जबकि 99 प्रतिशत आम जनता पर आर्थिक बोझ पड़ेगा। उन्होंने सरकार को सुझाव दिया था कि रेवेन्यू विभाग के विशेषज्ञों, रियल एस्टेट सेक्टर और किसान संगठनों को मिलाकर एक हाई-लेवल कमेटी बनाई जाए।
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी इस फैसले पर सरकार को आड़े हाथों लिया था। उन्होंने कहा था कि यह बताया जाए कि जमीन खरीदी पर अव्यवहारिक गाइडलाइन रेट लगाने का आदेश आखिर राज्य सरकार से ऊपर किसके कहने पर हुआ। वहीं पीसीसी चीफ दीपक बैज ने आरोप लगाया था कि नए रेट्स से छोटे कारोबार बर्बाद हो जाएंगे और आम आदमी का घर बनाने का सपना और दूर हो जाएगा। उन्होंने यहां तक कहा कि ये गाइडलाइन रेट काले धन को सफेद करने का जरिया बन सकती हैं।
इस पूरे विवाद में एक बड़ा मुद्दा पहले से चली आ रही 30 प्रतिशत की छूट का खत्म होना भी रहा। पहले सरकार जमीन का बाजार मूल्य तय करते समय 30 प्रतिशत कम आंकलन करती थी और उसी कम कीमत पर स्टांप ड्यूटी और पंजीयन शुल्क लिया जाता था। अब यह छूट पूरी तरह खत्म कर दी गई है और 100 प्रतिशत मूल्य पर ही रजिस्ट्रेशन हो रहा है, जबकि शुल्क की दरें पहले जैसी ही बनी हुई हैं। इसी वजह से आम लोगों पर सीधा आर्थिक बोझ बढ़ गया है।
व्यापारियों और आम नागरिकों की मांग है कि जब सरकार ने जमीन का पूरा मूल्य गिनना शुरू कर दिया है, तो पंजीयन शुल्क की दरों में भी उसी अनुपात में कटौती की जानी चाहिए, ताकि लोगों पर अतिरिक्त भार न पड़े। इसी दबाव और बढ़ते विरोध के बीच अब सरकार ने यू-टर्न लेते हुए नई गाइडलाइन की समीक्षा की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
अब सबकी नजर इस बात पर टिकी है कि 31 दिसंबर तक जिलों से आने वाली रिपोर्ट के बाद सरकार जमीन की दरों को लेकर क्या अंतिम फैसला लेती है। फिलहाल इतना तय है कि जनता के दबाव ने सरकार को पीछे हटने और दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया है।