राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि भारत का संविधान केवल कानूनों का संग्रह नहीं, बल्कि देश को एक साथ लेकर चलने की साझा चेतना का लिखित प्रमाण है। उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना का पहला शब्द ‘हम’ अपने आप में यह संदेश देता है कि पूरा भारत एक इकाई है, जहां समाज के सभी वर्ग मिलकर एक लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। यह भावना आज की नहीं, बल्कि भारत की सनातन परंपरा और सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा रही है।
‘अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना’ द्वारा आयोजित ‘भारतीय इतिहास, संस्कृति और संविधान’ विषयक सेमिनार को संबोधित करते हुए मोहन भागवत ने कहा कि संविधान एक ऐसा लिखित साक्ष्य है, जिसके अनुसार पूरे देश और समाज को चलना होता है। उन्होंने अंग्रेजी शासन का संदर्भ देते हुए कहा कि उस दौर में ‘हम’ जैसे शब्द की कोई मान्यता नहीं थी, क्योंकि ब्रिटिश सत्ता भारत को राष्ट्र के रूप में स्वीकार ही नहीं करती थी। इसके विपरीत, आज के संविधान में ‘हम’ की भावना यह दर्शाती है कि देश की आत्मा सामूहिकता और साझे उत्तरदायित्व से जुड़ी हुई है।
उन्होंने कहा कि संविधान के पृष्ठों पर अंकित चित्र और प्रतीक यह स्पष्ट करते हैं कि इसमें भारत के मूल धर्म और सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश है। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि संविधान का निर्माण करने वाले लोग भारत की परंपराओं, संस्कारों और सांस्कृतिक चेतना से गहराई से जुड़े हुए थे। उनके अनुसार, भारत में धर्म का अर्थ केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलने और सबके कल्याण की भावना रहा है, जो सदियों से समाज को दिशा देती आई है।
मोहन भागवत ने यह भी कहा कि आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी परंपरा के सही तथ्यों को खोजकर उन्हें समाज के सामने रखें और यह समझाएं कि हमारा संविधान किस तरह से उसी सांस्कृतिक प्रवाह से जुड़ा हुआ है। उन्होंने जोर दिया कि परंपरा, संस्कृति और संविधान के इस आपसी संबंध को समझदारी के साथ प्रस्तुत करना होगा, क्योंकि समझदारी और परस्पर भावना के आधार पर ही समाज मजबूत होता है और देश आगे बढ़ता है। उनके अनुसार, जब समाज सामूहिक भावना के संबल के साथ आगे बढ़ता है, तभी राष्ट्र वास्तव में महान बनता है।