सर्दियों का मौसम आते ही कई लोगों को यह शिकायत होने लगती है कि उनके खर्राटे पहले से ज़्यादा तेज़ और नियमित हो गए हैं। यह सिर्फ़ असहजता का मामला नहीं, बल्कि नींद की गुणवत्ता और समग्र स्वास्थ्य से भी जुड़ा हुआ मुद्दा है। ठंडी और शुष्क हवा, नाक–गले में होने वाले बदलाव और जीवनशैली की कुछ आदतें मिलकर इस समस्या को बढ़ा देती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, सर्दियों में खर्राटों का बढ़ना आम है, लेकिन समय रहते ध्यान दिया जाए तो इससे काफी हद तक राहत पाई जा सकती है।
नींद से जुड़े अंतरराष्ट्रीय मानकों पर काम करने वाली संस्था American Academy of Sleep Medicine के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 40 प्रतिशत पुरुष और 24 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी स्तर पर खर्राटों की समस्या से जूझते हैं। मौसम बदलते ही, खासकर सर्दियों में, यह अनुपात और बढ़ जाता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि ठंड के दिनों में हवा अधिक ड्राई हो जाती है, जिससे नाक और गले के अंदरूनी टिश्यू सूखने लगते हैं और सांस लेने का रास्ता संकरा महसूस होने लगता है।
खर्राटों का वैज्ञानिक कारण गले के पिछले हिस्से में मौजूद नरम टिश्यू का कंपन है। सोते समय शरीर की मांसपेशियां ढीली पड़ जाती हैं। जब हवा ऐसे ढीले टिश्यू के बीच से गुजरती है, तो वाइब्रेशन पैदा होता है और वही आवाज़ खर्राटों के रूप में सुनाई देती है। कुछ लोगों में गले और गर्दन की बनावट ऐसी होती है कि एयरवे पहले से ही थोड़ा संकरा होता है, जिससे उन्हें दूसरों की तुलना में ज़्यादा खर्राटे आते हैं।
सर्दियों में यह समस्या इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि ठंडी और शुष्क हवा नाक और गले की नमी को जल्दी खत्म कर देती है। नमी कम होने पर टिश्यू में जलन और हल्की सूजन हो सकती है, जिससे सांस की नली और सिकुड़ जाती है। जब सोते समय हवा इस संकरे रास्ते से गुजरती है, तो कंपन बढ़ जाता है और खर्राटे तेज़ हो जाते हैं। इसके साथ ही सर्दियों में सर्दी–जुकाम, एलर्जी और साइनस की समस्या भी आम होती है, जो नाक बंद होने का कारण बनती है।
आंकड़ों के मुताबिक, पुरुषों में खर्राटों की शिकायत महिलाओं की तुलना में ज़्यादा पाई जाती है। National Sleep Foundation के अनुसार, लगभग 42 प्रतिशत पुरुष और 31 प्रतिशत महिलाएं खर्राटे लेने की बात स्वीकार करते हैं। मोटापा, बढ़ती उम्र और गर्दन के आसपास जमा फैट भी इस समस्या को गंभीर बना सकते हैं, क्योंकि इससे गले के अंदर की जगह और कम हो जाती है।
अगर खर्राटे रोज़ की नींद का हिस्सा बनते जा रहे हों, तो कुछ ज़रूरी बदलाव काफी मददगार साबित हो सकते हैं। सोने की पोज़िशन इसमें अहम भूमिका निभाती है। पीठ के बल सोने पर जीभ और सॉफ्ट पैलेट पीछे की ओर गिरकर एयरवे को संकरा कर देते हैं, जबकि करवट लेकर सोने से सांस का रास्ता अपेक्षाकृत खुला रहता है। वजन नियंत्रित रखना भी ज़रूरी है, क्योंकि गर्दन पर जमा अतिरिक्त चर्बी अंदरूनी रास्ते पर दबाव डालती है। शराब और सिडेटिव दवाओं से दूरी बनाना भी लाभकारी होता है, क्योंकि ये गले की मांसपेशियों को ज़रूरत से ज़्यादा ढीला कर देती हैं।
डिनर का समय और उसका प्रकार भी खर्राटों को प्रभावित करता है। बहुत देर से या बहुत भारी खाना खाने पर पेट भरा रहता है और लेटने पर उसका दबाव डायफ्राम पर पड़ता है, जिससे सांस लेने में दिक्कत हो सकती है। हल्का और जल्दी लिया गया भोजन बेहतर माना जाता है। इसके साथ ही अच्छी स्लीप हाइजीन अपनाना, यानी पर्याप्त और नियमित नींद लेना, भी ज़रूरी है। अत्यधिक थकान की स्थिति में नींद बहुत गहरी हो जाती है और मांसपेशियां और ढीली पड़ सकती हैं।
सर्दियों में कुछ अतिरिक्त सावधानियां अपनाने से भी खर्राटों में कमी लाई जा सकती है। कमरे में हल्की नमी बनाए रखने से नाक और गले के टिश्यू सूखने से बचते हैं। नाक को नम रखना, सोने से पहले भाप लेना और धूल या एलर्जी पैदा करने वाले तत्वों से दूरी बनाना भी फायदेमंद होता है। बहुत ठंडी हवा से नाक को बचाने के लिए बाहर जाते समय स्कार्फ या मफलर का इस्तेमाल करना चाहिए और दिन भर पर्याप्त पानी पीते रहना चाहिए, ताकि शरीर और श्वसन तंत्र हाइड्रेटेड रहे।
विशेषज्ञों के मुताबिक, आम तौर पर खर्राटे अपने आप में खतरनाक नहीं होते। लेकिन अगर ये बहुत तेज़, लगातार हों, नींद में सांस रुकने जैसी स्थिति बने या दिन में अत्यधिक थकान, सिरदर्द और नींद महसूस हो, तो यह किसी गंभीर स्लीप डिसऑर्डर का संकेत हो सकता है। ऐसे मामलों में समय रहते डॉक्टर से सलाह लेना बेहद ज़रूरी है।
नई दिल्ली स्थित Sri Balaji Action Medical Institute के रेस्पिरेटरी और स्लीप मेडिसिन विभाग के निदेशक डॉ. अनिमेष आर्य का कहना है कि सही स्लीप हैबिट्स और जीवनशैली में छोटे-छोटे सुधार करके ज़्यादातर लोगों को राहत मिल सकती है। लेकिन चेतावनी वाले लक्षणों को नज़रअंदाज़ करना ठीक नहीं, क्योंकि समय पर जांच और इलाज से बड़ी परेशानी को रोका जा सकता है।