दुनियाभर के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में भी क्रिसमस पूरे उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जा रहा है। रोशनी, प्रार्थनाओं और गीतों के बीच यह पर्व केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रदेश के उस इतिहास की भी याद दिलाता है, जिसने यहां ईसाई धर्म की जड़ें मजबूत कीं। छत्तीसगढ़ में आज सैकड़ों चर्च मौजूद हैं और मसीही समाज का व्यापक फैलाव दिखाई देता है, लेकिन इसकी शुरुआत एक छोटे से गांव विश्रामपुर से हुई थी, जिसने आगे चलकर पूरे प्रदेश की दिशा बदल दी।
आज छत्तीसगढ़ में लगभग 727 बड़े चर्च दर्ज हैं, जबकि ग्रामीण इलाकों के छोटे-छोटे गिरजाघरों को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 900 से भी अधिक हो जाती है। इन चर्चों के पीछे छिपी कहानियां केवल इमारतों की नहीं हैं, बल्कि सेवा, शिक्षा, भाषा और संस्कृति के जरिए समाज में बदलाव की दास्तान हैं। इन्हीं कहानियों में सबसे अहम अध्याय है छत्तीसगढ़ का पहला मिशनरी चर्च और बाइबिल के छत्तीसगढ़ी अनुवाद की कहानी।
छत्तीसगढ़ का पहला मिशनरी चर्च 18वीं सदी में बलौदाबाजार जिले के विश्रामपुर में स्थापित हुआ था। इस चर्च का नाम इम्मानुएल रखा गया और इसे ‘द सिटी ऑफ रेस्ट’ भी कहा गया। यही वह स्थान है, जहां से पूरे प्रदेश में ईसाई धर्म का संगठित प्रसार शुरू हुआ। इस चर्च की नींव जर्मनी में जन्मे मिशनरी ऑस्कर थियोडोर लोर ने रखी थी, जिन्हें आज भी ‘फादर ऑफ विश्रामपुर’ कहा जाता है। 15 फरवरी 1873 को चर्च का निर्माण शुरू हुआ और 29 मार्च 1874 को यह बनकर तैयार हुआ। पत्थरों से बने इस चर्च की खासियत यह है कि यह बिना किसी कॉलम के खड़ा है और इससे लगा हुआ कब्रिस्तान आज भी इस्तेमाल में है, जो इसे देश के शुरुआती अनोखे चर्चों में शामिल करता है।
ऑस्कर थियोडोर लोर का जीवन खुद में एक कहानी है। 28 मार्च 1824 को जर्मनी में जन्मे लोर मेडिकल पढ़ाई के बाद मिशनरी बने। वे 1850 में पहली बार भारत आए और रांची में हिंदी सीखी, बीमारों का इलाज किया और सेवा कार्यों में जुट गए। कुछ वर्षों बाद वे अमेरिका चले गए, लेकिन 1868 में परिवार सहित भारत लौटे और विश्रामपुर को सेंट्रल इंडिया मिशनरी का मुख्यालय बनाया। उनकी पत्नी और दो बेटे भी ग्रामीणों की सेवा, इलाज, शिक्षा और रोजगार के काम में जुट गए। 1907 में कवर्धा में उनका निधन हुआ, लेकिन बाद में उन्हें विश्रामपुर लाकर दफनाया गया।
ईसाई धर्म के प्रसार में भाषा ने भी अहम भूमिका निभाई। फादर लोर के बेटे जूलियस ने स्थानीय लोगों तक संदेश पहुंचाने के लिए बाइबिल के एक अध्याय ‘गॉस्पेल ऑफ मार्क’ का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया। यह कदम उस दौर में बेहद प्रभावशाली साबित हुआ। इसका असर यह रहा कि 1880 में जहां विश्रामपुर में केवल 4 लोग ईसाई थे, वहीं 1883 तक यह संख्या बढ़कर 258 हो गई। 1884 तक रायपुर, बैतलपुर और परसाभदर में मिशनरी के केंद्र खुल गए और 11 स्कूल स्थापित किए गए। कुछ ही वर्षों में 1125 लोग ईसाई धर्म से जुड़ चुके थे। विश्रामपुर से शुरू हुई यह धारा आज लाखों लोगों तक पहुंच चुकी है।
विश्रामपुर को लेकर एक और दावा चौंकाने वाला है। चर्च से जुड़े लोगों के अनुसार, यह भारत का ऐसा अनोखा गांव है, जहां की आबादी पूरी तरह ईसाई है। कहा जाता है कि यहां रहने वाले लोग उन्हीं परिवारों की पीढ़ियां हैं, जिन्हें फादर लोर ने धर्म परिवर्तन के समय शिक्षा, इलाज और सहायता के जरिए अपने साथ जोड़ा था।
छत्तीसगढ़ में धार्मिक सह-अस्तित्व की एक अनोखी मिसाल मुंगेली जिले का मदकू द्वीप भी है। शिवनाथ नदी पर स्थित यह द्वीप प्राचीन काल से धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है। यहां मांडूक्य ऋषि की तपोस्थली मानी जाती है और पुरातात्विक खुदाई में गुप्तकाल और कल्चुरी काल की मूर्तियां मिली हैं। इसी मदकू द्वीप पर 1909 से मसीही समाज हर साल मेला आयोजित करता आ रहा है। फरवरी में लगने वाले इस मेले में देशभर से ईसाई समुदाय के लोग जुटते हैं, जहां आत्मिक संदेशों के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। इसी द्वीप पर हिंदू मंदिरों और ईसाई परंपराओं का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व देखने को मिलता है।
जशपुर जिले के कुनकुरी में स्थित महागिरजाघर छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि एशिया के सबसे बड़े चर्चों में गिना जाता है। 1962 में इसकी आधारशिला रखी गई थी और 17 साल की मेहनत के बाद यह भव्य चर्च तैयार हुआ। पहाड़ों और जंगलों से घिरे इस इलाके में आदिवासी मजदूरों ने इसे खड़ा किया। इसकी संरचना बाइबिल में वर्णित तथ्यों पर आधारित है और यह एक ही बिंदु पर टिका हुआ विशाल ढांचा माना जाता है। आज इससे जुड़े अनुयायियों की संख्या करीब दो लाख से अधिक बताई जाती है।
बस्तर संभाग में जगदलपुर का ऐतिहासिक ‘लाल चर्च’ भी इस विरासत का अहम हिस्सा है। 1890 में ब्रिटिश काल के दौरान मिशनरी सीबी वार्ड यहां पहुंचे और काकतीय वंश के राजा से मिली जमीन पर इस चर्च की नींव रखी गई। लाल ईंट, बेल फल, गोंद और चूने से बने इस चर्च को तैयार होने में करीब 33 साल लगे। इसे पूरी तरह लाल रंग में रखने का विचार इसे एक अलग पहचान देता है।
राजधानी रायपुर का सेंट पॉल्स कैथेड्रल चर्च भी करीब 121 साल पुराना है। 1903 में शुरू होकर एक साल में बना यह चर्च आज छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा CNI सदस्य चर्च माना जाता है। यहां हर साल 15 दिन तक क्रिसमस का आयोजन होता है, जिसमें राज्यपाल, मुख्यमंत्री और कई जनप्रतिनिधि शामिल होते हैं। वहीं बिलासपुर का डिसाइपल्स ऑफ क्राइस्ट चर्च और भिलाई का कम्युनिटी क्रिश्चियन चर्च भी अपने इतिहास और अनोखी परंपराओं के लिए जाने जाते हैं। भिलाई का चर्च प्रदेश का इकलौता चर्च है, जहां टाइम कैप्सूल दफन है।
इस तरह क्रिसमस के मौके पर छत्तीसगढ़ की धरती केवल पर्व का उत्सव नहीं मनाती, बल्कि उस इतिहास को भी जीवित रखती है, जहां विश्रामपुर से शुरू हुई एक कहानी भाषा, सेवा और संस्कृति के जरिए पूरे प्रदेश में फैल गई और आज भी सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा बनी हुई है।