‘बैटल ऑफ द सेक्सेस’ में किर्गियोस की जीत: बदले नियमों में सबालेंका पर भारी पड़े, टेनिस जगत में छिड़ी नई बहस

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दुबई में खेले गए हाई-प्रोफाइल प्रदर्शनी मुकाबले ‘बैटल ऑफ द सेक्सेस’ ने एक बार फिर टेनिस की दुनिया में बहस को हवा दे दी है। इस मुकाबले में ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी Nick Kyrgios ने महिला विश्व नंबर एक Aryna Sabalenka को 6-3, 6-3 से हराकर जीत दर्ज की। मुकाबला भले ही रोमांचक रहा, लेकिन बदले हुए नियमों और ऐतिहासिक संदर्भ की वजह से यह जीत चर्चा और विवाद दोनों का कारण बन गई है।

रविवार को दुबई में हुए इस मुकाबले को लेकर पहले से ही उत्सुकता थी, क्योंकि इसे ‘बैटल ऑफ द सेक्सेस’ नाम दिया गया था। हालांकि, टेनिस जानकारों का मानना है कि इस मैच की तुलना 1973 के ऐतिहासिक मुकाबले से करना सही नहीं होगा। उस दौर में Billie Jean King और Bobby Riggs के बीच खेला गया मैच सिर्फ खेल नहीं, बल्कि महिला टेनिस की पहचान और समानता की लड़ाई का प्रतीक था। बिली जीन किंग की उस जीत ने महिला टेनिस को वैश्विक सम्मान दिलाया था, जबकि दुबई का यह मुकाबला मुख्य रूप से मनोरंजन तक सीमित रहा।

इस प्रदर्शनी मैच में नियमों को खास तौर पर बदला गया था। दोनों खिलाड़ियों को केवल एक सर्व की अनुमति दी गई थी और सबालेंका के कोर्ट का आकार लगभग नौ प्रतिशत छोटा कर दिया गया था, ताकि किर्गियोस की ताकत और तेज़ खेल को संतुलित किया जा सके। इन बदलावों को लेकर दर्शकों की राय बंटी हुई नजर आई। कुछ फैंस ने इसे रोचक प्रयोग बताया, तो कई लोगों ने इसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए।

खास बात यह रही कि किर्गियोस मौजूदा समय में अपने करियर के सबसे कमजोर दौर से गुजर रहे हैं। पिछले तीन सीज़न में वह केवल छह एटीपी मैच खेल पाए हैं और उनकी रैंकिंग गिरकर 671 तक पहुंच गई है। इसके बावजूद उन्होंने चार बार की ग्रैंड स्लैम सिंगल्स चैंपियन सबालेंका के खिलाफ अनुभव और आक्रामक खेल का बेहतरीन इस्तेमाल किया और मैच को अपने नाम कर लिया।

मैच के बाद किर्गियोस ने सबालेंका की खुलकर तारीफ की। उन्होंने कहा कि मुकाबला जितना बाहर से आसान दिख रहा था, उतना था नहीं। सबालेंका ने लगातार दबाव बनाए रखा और जीत के लिए उन्हें पूरी तरह फोकस में रहना पड़ा। उनके इस बयान से साफ था कि यह मुकाबला सिर्फ दिखावे का नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धा से भरपूर था।

हालांकि यह एक प्रदर्शनी मैच था, लेकिन इसने पुरुष और महिला टेनिस के बीच शारीरिक अंतर, नियमों में बदलाव और ऐसे मुकाबलों की प्रासंगिकता पर नई बहस छेड़ दी है। कई प्रशंसकों का मानना है कि ऐसे मुकाबले मनोरंजन के लिहाज़ से ठीक हैं, लेकिन उन्हें 1973 जैसे ऐतिहासिक संघर्षों के बराबर रखना सही नहीं होगा। दुबई का यह मैच खेल से ज्यादा एक प्रयोग और चर्चा का विषय बनकर सामने आया है।

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