छत्तीसगढ़ में पहली बार नार्को टेस्ट की सुविधा शुरू हो गई है। बड़े अपराधियों के झूठ को पकड़ने के लिए रायपुर एम्स में नार्को टेस्ट किया जाएगा। इससे पहले पुलिस को मुंबई, हैदराबाद या बेंगलुरु जाना पड़ता था। एम्स के फोरेंसिक विभाग के एक्सपर्ट की मदद से केस की बारीकियों और डेप्थ तक जाकर सच सामने लाया जाएगा। जिसकी रिपोर्ट महज 3 दिन के भीतर मिल जाएगी।दरअसल, रायपुर एम्स में 27 जुलाई को पहले नार्को एनालिसिस टेस्ट सफल हो गया है। यह टेस्ट फोरेंसिक साइंस लैबोरेटरी में एनेस्थीसिया विभाग, जनरल मेडिसिन और इमरजेंसी मेडिसिन विभाग के सहयोग से पूरा हो गया है। इसके लिए अक्टूबर 2023 में एम्स और पुलिस की फोरेंसिक साइंस लैबोरेटरी की ओर से समझौता हुआ था।
इन मामलों में पड़ी थी नार्को टेस्ट की जरूरत
- डॉ. जीके सूर्यवंशी और उनकी पत्नी डॉ. ऊषा की मर्डर मिस्ट्री में आरोपी की तलाश के लिए संदिग्धों का नार्को टेस्ट किया गया। ये वारदात करीब 2017 की कवर्धा की है।
- करीब 2 साल पहले अमलेश्वर के 4 लोगों के कत्ल खुड़मुड़ा हत्याकांड में आरोपियों तक पहुंचने के लिए पुलिस ने 11 लोगों के नार्को टेस्ट की अनुमति मांगी थी।
नार्को टेस्ट के बारे में विस्तार से जानिए…
शातिर क्रिमिनल खुद को बचाने के लिए अक्सर झूठी कहानी बनाता है। पुलिस को गुमराह करते हैं। इनसे सच उगलवाने के लिए नार्को टेस्ट किया जाता है। नार्को टेस्ट में साइकोएस्टिव दवा दी जाती है। जिसे ट्रुथ ड्रग भी कहते हैं। जैसे- सोडियम पेंटोथल, स्कोपोलामाइन और सोडियम अमाइटल।
सोडियम पेंटोथल कम समय में तेजी से काम करने वाला एनेस्थेटिक ड्रग है। इसका इस्तेमाल सर्जरी के दौरान बेहोश करने में सबसे ज्यादा होता है। ये केमिकल जैसे ही नसों में उतरता है, शख्स बेहोशी में चला जाता है। बेहोशी से जागने के बाद भी आरोपी आधे बेहोशी में ही रहता है।
इस हालत में वो जानबूझकर कहानी नहीं गढ़ सकता, इसलिए सच बोलता है। नार्को टेस्ट में जो ड्रग दिया जाता है, वो बेहद खतरनाक होता है। जरा सी चूक से मौत भी हो सकती है या आरोपी कोमा में भी जा सकता है। यही वजह है कि नार्को टेस्ट से पहले आरोपी की मेडिकल जांच की जाती है।
इनका नहीं होता नार्को टेस्ट
अगर आरोपी को मनोवैज्ञानिक, आर्गन से जुड़ी या कैंसर जैसी कोई बड़ी बीमारी है, तो उसका नार्को टेस्ट नहीं किया जाता। नार्को टेस्ट अस्पताल में इसलिए कराया जाता है, ताकि कुछ गड़बड़ होने पर इमरजेंसी की स्थिति में तत्काल इलाज किया जा सके। व्यक्ति की सेहत, उम्र और जेंडर के हिसाब से नार्को टेस्ट की दवाइयां दी जाती है।
कोर्ट में नार्को टेस्ट की लीगल वैलिडिटी क्यों नहीं है?
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के मुताबिक, दवा के इस्तेमाल के बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कोई आरोपी सिर्फ सच ही बोले। एनेस्थीसिया की स्थिति में कोई शख्स अपनी इच्छा से स्टेटमेंट नहीं देता है। इस समय वह अपने होशो-हवास में भी नहीं होता है।
इसीलिए कोर्ट में कानूनी तौर पर साक्ष्य के लिए नार्को टेस्ट रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया जाता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि, नार्को टेस्ट रिपोर्ट की मदद से बाद में खोजी गई किसी भी जानकारी को सबूत के तौर पर कोर्ट में पेश किए जाने की अनुमति होगी।