लोगों को नहीं, परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए करें कार्य

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भिलाई।
जैन बगीचे में चल रहे चातुर्मासिक प्रवचन में बुधवार को जैन संत मुनि विनय कुशल श्रीजी के शिष्य मुनि वीरभद्र (विराग) श्रीजी ने जीवन की आध्यात्मिक दिशा को लेकर महत्वपूर्ण संदेश दिया। उन्होंने कहा कि आज हम अधिकतर कार्य समाज और लोगों को खुश करने के उद्देश्य से करते हैं, लेकिन जिस परमात्मा ने हमें यह जीवन और चेतना दी है, उसे प्रसन्न करने का प्रयास नहीं करते। जब तक हमारे कर्मों का केंद्र परमात्मा नहीं बनेंगे, तब तक हमारे जीवन की क्रियाओं में सच्चा आनंद नहीं आ सकता।

मुनि श्री ने कहा, “हम पाप के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाए हैं, न ही यह समझ पाए हैं कि हमारी प्रवृत्तियां कैसी होनी चाहिए। जब तक हम उपसर्गों (कष्टों) को समभाव से नहीं सहेंगे, तब तक किसी भी धार्मिक क्रिया में रस नहीं आएगा।”

उन्होंने व्रतों के संदर्भ में कहा कि अक्सर लोग व्रत तो करते हैं, लेकिन उसमें छूट की भावना रखते हैं। जबकि सच्चे व्रत वही होते हैं जिनमें कोई भी परिस्थिति आने पर भी संकल्प न टूटे। यह तब संभव होगा जब व्यक्ति के भीतर तात्विक दृष्टि और मन की स्थिरता होगी। उन्होंने कहा, “मन में जब तक समाधि नहीं होगी, तब तक व्रतों में दृढ़ता नहीं आ सकती। स्थिर और शांत मन की स्थिति को ही समाधि कहा गया है। आत्मा को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता, इसका लाभ या हानि केवल हमारे अपने हाथ में है।”

प्रवचन के दौरान मुनि श्रीजी ने धर्म के प्रति ‘अहोभाव’ लाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि यदि धर्म के प्रति गहरी श्रद्धा आ जाए तो व्यक्ति हर धार्मिक क्रिया में आत्मिक आनंद का अनुभव करने लगेगा। वर्तमान समय में हम जो भी धार्मिक क्रियाएं करते हैं, वे केवल दिखावे और सामाजिक मान्यता के लिए होती हैं, न कि उस परमात्मा की प्रसन्नता के लिए, जिसने हमें सब कुछ प्रदान किया है।

प्रवचन का सार:

  • धर्म का उद्देश्य लोगों को खुश करना नहीं, बल्कि परमात्मा की प्रसन्नता होनी चाहिए।

  • पाप का स्वरूप और अपनी प्रवृत्तियों को सही दिशा देना आवश्यक है।

  • व्रतों में छूट की भावना नहीं होनी चाहिए, अपितु दृढ़ संकल्प के साथ उनका पालन करना चाहिए।

  • आत्मा को कोई हानि नहीं पहुंचा सकता, सुख-दुख का निर्णय स्वयं व्यक्ति करता है।

  • मन की स्थिरता और समाधि के बिना कोई भी आध्यात्मिक अनुशासन टिकाऊ नहीं हो सकता।

मुनि श्रीजी के गूढ़ विचारों और जीवन को गहराई से समझने की प्रेरणा देने वाले प्रवचनों को श्रोताओं ने एकाग्र होकर सुना और आत्मचिंतन किया।

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