सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (21 अगस्त 2025) को राज्यपाल की शक्तियों को लेकर अहम फैसला सुनाते हुए साफ कहा कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकारें राज्यपाल की इच्छाओं पर निर्भर नहीं हो सकतीं। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि अगर विधानसभा से पास होकर कोई बिल दोबारा राज्यपाल के पास भेजा जाता है, तो राज्यपाल न तो उसे रोक सकते हैं और न ही राष्ट्रपति को भेजने का अधिकार रखते हैं।
अनुच्छेद 200 की व्याख्या
संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को चार विकल्प देता है—
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वे बिल पर हस्ताक्षर करके मंजूरी दें।
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मंजूरी की बजाय राष्ट्रपति को भेजें।
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विधानसभा को बिल वापस करके पुनर्विचार का सुझाव दें।
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…लेकिन जब विधानसभा पुनर्विचार कर बिल दोबारा भेज देती है, तब राज्यपाल को उसे अनिवार्य रूप से मंजूर करना होगा।
CJI का बयान
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने टिप्पणी की—
“अगर राज्यपाल बिना वजह बिल अटका देते हैं तो यह चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने जैसा कदम होगा।”
केंद्र बनाम विपक्ष की बहस
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केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि “राज्यपाल केवल पोस्टमैन नहीं हो सकते, उनके पास भी संवैधानिक शक्तियां हैं।”
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विपक्ष की ओर से कपिल सिब्बल ने कहा कि अगर राज्यपाल को यह शक्ति है, तो फिर राष्ट्रपति भी केंद्र सरकार के बिलों पर रोक लगा सकते हैं।
इस पर सीजेआई ने स्पष्ट किया कि संविधान की व्याख्या राजनीतिक नजरिए से नहीं बल्कि उसके मूल सिद्धांतों के आधार पर होगी।
“संविधान जीवंत दस्तावेज है”
जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा ने कहा—
“संविधान स्थिर नहीं है बल्कि यह एक जीवंत दस्तावेज है। राज्यपाल केवल संशोधन का सुझाव दे सकते हैं, लेकिन विधानसभा द्वारा दोबारा पारित बिल पर उन्हें हस्ताक्षर करना ही होगा।”
कुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि राज्यपाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा नहीं डाल सकते और जनता की चुनी हुई सरकार की प्राथमिकता सर्वोपरि होगी।