मेंटल हेल्थ स्पेशल: 46 साल की रांची की वर्किंग वुमन की कहानी, जिन्होंने अब्यूसिव रिश्ते से निकलकर नया जीवन शुरू किया और अब कैंसर से जंग लड़ रही हैं

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मैं 46 साल की हूं, रांची में छोटा-सा रेस्टोरेंट चलाती हूं। 7 साल पहले तलाक हुआ, तब जिंदगी मानो खत्म-सी लग रही थी। पति अब्यूसिव थे, कई साल सहा। हिम्मत करके अलग हुई, और पिता की मदद व अपनी बचत से रेस्टोरेंट शुरू किया। सबकुछ पटरी पर आने लगा, बेटी अब 17 साल की है… तभी डेढ़ साल पहले पता चला – मुझे तीसरे स्टेज का ब्रेस्ट कैंसर है।

उस दिन के बाद मेरी दुनिया जैसे रुक गई। अब हर वक्त दिमाग में बस यही आता है – “क्या मैं अब जी पाऊंगी? मेरी बेटी का क्या होगा?” डॉक्टर उम्मीद दिलाते हैं, लेकिन मन बार-बार टूट जाता है।

एक्सपर्ट –

डॉ. द्रोण शर्मा (कंसल्टेंट साइकियाट्रिस्ट, आयरलैंड/यूके)


1. आपके डर को नाम देना ज़रूरी है

कैंसर का नाम सुनते ही दिमाग कैटेस्ट्रॉफी मोड में चला जाता है। यानी हमें लगता है –

  • “सब खत्म हो गया।”

  • “मैं अब ज्यादा नहीं जी पाऊंगी।”

  • “मेरे लिए कोई रास्ता नहीं बचा।”

लेकिन ये विचार फैक्ट्स पर आधारित नहीं होते। इन्हें मनोविज्ञान में कॉग्निटिव डिस्टॉर्शन कहते हैं – यानी डर और चिंता के कारण सबसे बुरी संभावना की कल्पना करना।


2. असलियत क्या कहती है? (सरवाइवल रेट्स)

  • ब्रेस्ट कैंसर: 100 में से 91 लोग कम से कम 5 साल जीवित रहते हैं।

  • भारत में: अगर समय रहते पता चल जाए तो सरवाइवल रेट 85-90% तक हो सकता है।

यानी कैंसर का मतलब मौत की सजा नहीं है।


3. मन की हालत का असर शरीर पर

साइंटिफिक रिसर्च साफ कहती है – हमारी सोच और इमोशनल हेल्थ का सीधा असर रिकवरी पर पड़ता है।
इसलिए पॉजिटिव रहना और बैलेंस्ड माइंडसेट बनाना उतना ही जरूरी है जितना दवा लेना।


4. चार हफ्तों का सेल्फ-हेल्प प्लान

पहला हफ्ता: डर को चुनौती दें

  • डरावने विचार लिखें और खुद से पूछें –

    • इसके पीछे सबूत क्या है?

    • क्या इसे झूठा साबित करने वाले तथ्य हैं?

    • अगर मेरी दोस्त ऐसे सोचती तो मैं उसे क्या कहती?

दूसरा हफ्ता: मन को शांत करें

  • 5 मिनट गहरी सांस की कसरत।

  • शवासन में बॉडी-स्कैन।

  • ग्राउंडिंग तकनीक अपनाएं – 5 चीजें देखें, 4 छुएं, 3 सुनें, 2 सूंघें, 1 चखें।

तीसरा हफ्ता: जिंदगी को फिर से जिएं

  • रोज़ छोटी-छोटी खुशियां – किताब, फिल्म, वॉक, दोस्तों से बातचीत।

  • अपनी भावनाओं को लिखें या आर्ट/म्यूज़िक में ढालें।

चौथा हफ्ता: उम्मीद को थामें

  • हर दिन छोटा लक्ष्य तय करें।

  • Hope List बनाएं – ट्रीटमेंट पूरा होने के बाद आप क्या करना चाहती हैं।


5. पॉजिटिव रहने के छोटे-छोटे स्टेप्स

  • फैक्ट्स को याद रखें, डर को नहीं।

  • एक दिन को एक दिन की तरह जिएं।

  • सपोर्ट सिस्टम बनाएं – परिवार, दोस्त, सपोर्ट ग्रुप।

  • छोटी-छोटी जीत का जश्न मनाएं।

  • खुद को याद दिलाएं – “मैं वही हूं, जो कैंसर से पहले थी।”


6. कब लेना चाहिए प्रोफेशनल हेल्प?

अगर लगातार…

  • नींद न आए,

  • आत्महत्या जैसे विचार आएं,

  • हर समय निराशा महसूस हो,

  • या रिश्तों/काम में बिल्कुल मन न लगे,
    तो तुरंत साइकियाट्रिस्ट/काउंसलर से संपर्क करें।


निष्कर्ष

आपका डर स्वाभाविक है। लेकिन याद रखिए – आप अकेली नहीं हैं। हज़ारों लोग इसी राह से गुजरकर आगे निकले हैं, उन्होंने कैंसर से लड़कर न सिर्फ जिंदगी जी है बल्कि उसे और मायने दिए हैं।

कैंसर आपके जीवन का अंत नहीं, बल्कि एक नया अध्याय है। और यह अध्याय आप अपने शब्दों और रंगों से खूबसूरत बना सकती हैं।

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