सवाल:
मैं 30 साल का प्रोफेशनल हूँ। मेरी गर्लफ्रेंड के साथ रिश्ता ठीक है, लेकिन एक चुनौती है। वह शिकायत करती है कि मैं अपनी इच्छाएँ या जरूरतें व्यक्त नहीं करता। मुझे पता है कि अपनी भावनाओं और जरूरतों को जाहिर करने में मुझे मुश्किल होती है।
बचपन में मैं अपने मम्मी-पापा के साथ नहीं रह पाया और रिश्तेदारों के घर पर पला-बढ़ा। शायद उसी कारण से मैंने भावनाओं को दबाना सीख लिया। अब भी मैं अपनी जरूरतें आसानी से नहीं बता पाता। कभी-कभी इतना कि अगर मैं सोना चाहता हूँ और कोई मुझे मार्केट जाने को कहे, तो मैं ‘ना’ नहीं कह पाता। मुझे लगता है कि पर्सनल और प्रोफेशनल दोनों जगह मुझे कंट्रोल और डॉमिनेट किया जाता है। यह मुझे अंदर ही अंदर उदासी और अवसाद महसूस कराता है।
एक्सपर्ट – डॉ. द्रोण शर्मा, कंसल्टेंट साइकेट्रिस्ट (यूके)
धन्यवाद आपका सवाल पूछने के लिए। आपने खुद अपने व्यवहार और उसके रूट कारण को समझने की कोशिश की है। बचपन में जो आपने व्यवहार सीखा, वह अब वयस्क जीवन में एक पैटर्न बन गया है। अब आप छोटे बच्चे नहीं हैं और किसी पर निर्भर नहीं हैं, लेकिन वही आदतें जारी हैं।
अपनी भावनाओं और जरूरतों को व्यक्त करना क्यों जरूरी है?
कई लोग ऐसे माहौल में बड़े होते हैं जहाँ उनकी भावनाओं को महत्व नहीं दिया जाता।
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बच्चे को कहा जाता है, “चुप रहो, मजबूत बनो।”
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मांग करने पर ताना मिलता है, “इतनी इच्छाएं मत रखो।”
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राय देने पर डांट लगती है, “बड़ों से बहस मत करो।”
बच्चे जल्दी सीख जाते हैं कि अपनी भावनाओं और जरूरतों को दबाना ही सुरक्षित है। यह बचपन का कोपिंग मैकेनिज्म वयस्क जीवन में एक इनर वायरिंग बन जाता है।
बचपन में भावनाएं दबाने का असर
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आत्म-सम्मान कमजोर होना: खुद को कम आंकना, दूसरों से डॉमिनेट होना।
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डर और झिझक: अपनी जरूरतें व्यक्त करने में डर।
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भीतर आक्रोश: लंबे समय तक दबने पर गुस्सा या चिड़चिड़ापन।
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रिश्तों में असमानता: हमेशा दूसरों को खुश करने पर ध्यान।
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मेंटल हेल्थ पर असर: डिप्रेशन, एंग्जाइटी, नींद की गड़बड़ी, सिरदर्द आदि।
रिपोर्ट्स (NICE, HSE, RCPsych, UK) में भी यह स्पष्ट हुआ है कि बचपन के अनुभव वयस्क मेंटल हेल्थ की नींव रखते हैं।
सेल्फ स्क्रीनिंग टूल
नीचे 5 सवाल हैं। हां/ना में जवाब दें। अगर तीन से अधिक हां हैं, तो एसर्टिवनेस (Assertiveness) बढ़ाने की जरूरत है।
4 हफ्तों का CBT आधारित सेल्फ-हेल्प प्रोग्राम
सप्ताह 1 – पहचान
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अपनी भावनाओं और जरूरतों को नोट करें।
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डायरी में लिखें: कहाँ- कहाँ आपने अपनी फीलिंग्स या जरूरतें व्यक्त नहीं कीं।
सप्ताह 2 – छोटे कदम
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छोटी-छोटी बातों से अपनी इच्छाएँ व्यक्त करना शुरू करें।
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रोज ‘ना’ बोलने का अभ्यास करें।
सप्ताह 3 – भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करना
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अपने वाक्य “मैं” से शुरू करें।
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उदाहरण:
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“मुझे अच्छा लगेगा अगर हम साथ समय बिताएं।”
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“मुझे हॉरर फिल्में पसंद नहीं हैं, मैं फैमिली ड्रामा देखना पसंद करता हूँ।”
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सप्ताह 4 – रिश्तों में संवाद
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शांत समय चुनकर अपनी भावनाएं साझा करें।
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बात को समस्या सुलझाने के अवसर के रूप में लें।
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परिवार या पार्टनर से बात करते समय शांत, सम्मानजनक और स्पष्ट रहें।
प्रोफेशनल हेल्प कब जरूरी
अगर लगातार दबे हुए गुस्से, उदासी या तनाव से नींद, भूख, काम या रिश्तों पर गंभीर असर पड़ रहा हो, तो मनोचिकित्सक या काउंसलर की मदद लें।
निष्कर्ष:
आप वयस्क हैं और अपनी जिंदगी की एजेंसी अपने हाथ में ले सकते हैं। बदलाव धीरे-धीरे आएगा, लेकिन शुरुआत आपकी ही कोशिश से होगी।