दशहरा उत्सव : 365 साल पुरानी परंपरा, देवी देवताओं का स्वागत, पर रावण दहन नहीं

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महासमुंद – 365 साल पुरानी परंपरा के चलते आज भी जिले के कोमाखान स्थित सुअरमालगढ़ में रावण दहन नहीं होता। दरअसल, 36 गढ़ों में से एक इस गढ़ के राज परिवार की यह 8वीं पीढ़ी है, जो इस परंपरा का अनुसरण करती आ रही है और इस संस्कृति की वाहक भी है। विजयादशमी पर यहां रावण दहन की बजाय राजशाही दशहरा मनाया जाता है।

स्थानीय इतिहासकारों की मानें तो सन 1661 के आसपास से यहां राजशाही दशहरा होता है और इसके चलते राज्य में विभिन्न प्रकार के देवी देवताओं को क्वांर नवरात्रि की सप्तमी को न्यौता देकर गढ़ में आमंत्रित किया जाता है। दूर दराज के देवी देवताओं को बाजा गाजे के साथ लाने पश्चात अष्टमी के दिन महानिशा की पूजा और बलि दी जाती है। पश्चात नवमी के दिन नवाखाई पश्चात देवी-देवताओं का पुनः पूजन होता है। मान्यता है कि जनजातीय लोग रावण को अपना पूर्वज मानते हैं, इसलिए यहां रावण दहन नहीं होता।

देवी देवताओं का राजमहल में स्वागत
इतिहासकार विजय शर्मा बताते है कि गोढ़ी परंपरा के अनुरुप दशमी के दिन देवी देवताओं का स्वागत राजमहल में होता है। जहां राजा की तलवार (खाड़ा) पूजन कर विजया दशमी का पर्व मनाया जाता है। इसके पहले गढ़ में छद्म युध्द भी होता है। यहां विजया दशमी के पर्व पर रावण दहन नहीं बल्कि, राजशाही दशहरा मनाए जाने की परंपरा के अनुरूप शक्ति पूजन याने शस्त्र पूजा की परंपरा चली आ रही है। इसके चलते उत्सव की तो भारी धूम होती है लेकिन, यहां न तो रावण का पुतला जलाया गया है और न कभी जलाया जाएगा। छद्म युध्द के बाद रैनी डारा जीतते हैं और घरों में आरती और शमी पत्ता भेंट किया जाता है। वर्तमान में कोमाखान राजपरिवार के राजा ठाकुर उदय प्रताप सिंह है। राज परंपरा के बाद प्रजा राजा को नजराना भेंट करते हैं।

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