पिछले दो महीनों में देश के कई हिस्सों से बच्चों की आत्महत्या की चौंकाने वाली घटनाएं सामने आई हैं। महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली और मध्यप्रदेश में हुई इन वारदातों ने दिखा दिया है कि स्कूलों के अंदर होने वाला हरेसमेंट, बुलिंग और मानसिक दबाव बच्चों की जिंदगी छीन रहा है। सबसे ताज़ा मामला 21 नवंबर का है, जब महाराष्ट्र के जालना जिले में 13 साल की छात्रा आरोही दीपक बिडलान ने स्कूल की तीसरी मंजिल से कूदकर जान दे दी। उसके पिता का आरोप है कि टीचर्स लगातार उसे मेंटली हरेस कर रहे थे और वह कई दिनों से स्ट्रेस में थी।
पुलिस को कोई सुसाइड नोट नहीं मिला, लेकिन लगातार बढ़ती ऐसी घटनाएं गंभीर चेतावनी हैं कि बच्चे अंदर ही अंदर किस तरह दबाव झेल रहे हैं। इसी तरह नवंबर महीने में कई और मामले सामने आए। जयपुर में 9 साल की अमायरा ने बिल्डिंग से कूदकर जान दे दी। वह महीनों से लगातार बुलिंग का शिकार थी, लेकिन उसकी शिकायत किसी ने नहीं सुनी। दिल्ली में 16 साल के शौर्य ने राजेंद्र नगर मेट्रो स्टेशन से कूदकर सुसाइड कर लिया। सुसाइड नोट में उसने साफ लिखा कि टीचर्स की प्रताड़ना ने उसे तोड़ दिया। वहीं रीवा में 11वीं की छात्रा ने फांसी लगाई। उसकी कॉपी में लिखा था कि उसका टीचर मारने के बहाने हाथ पकड़ता था और उसे शारीरिक रूप से परेशान करता था।
NCRB-2023 के आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ 2023 में 13,892 स्टूडेंट्स ने आत्महत्या की। यह संख्या बताती है कि बच्चे मानसिक दबाव, डर, शर्मिंदगी, और लगातार मिलने वाले हरेसमेंट का बोझ अकेले ढो रहे हैं। क्लास में डांट, मजाक उड़ाना, दोस्तों की बुलिंग—ये सब देखने में मामूली लगते हैं, लेकिन यही बच्चे के मन में घुटन, अकेलापन और निराशा भर देते हैं। उनकी संवेदनशीलता उन्हें उस दिशा में ले जाती है जहां उन्हें रास्ता सिर्फ सुसाइड ही दिखता है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति कई कारणों से बढ़ती है। पेरेंट्स से बातचीत का कम होना उन्हें भावनात्मक रूप से अकेला छोड़ देता है। दूसरों से तुलना करने पर उनका आत्मसम्मान टूटता है। लगातार डांट, अपमान या धमकी डिप्रेशन और एंजायटी को जन्म देते हैं। जब बच्चा महसूस करता है कि उसकी परेशानी कोई नहीं सुन रहा, तब उसमें हेल्पलेसनेस बढ़ती है और ऐसे विचार आने लगते हैं कि सब खत्म कर दिया जाए।
सुसाइडल थॉट्स के छह कारण समझना जरूरी है—पेरेंट्स से डिस्कनेक्शन, आत्मसम्मान में कमी, डिप्रेशन-एंजायटी, लगातार आए नकारात्मक विचार, भीतर से असहाय महसूस करना और सपोर्ट सिस्टम का न होना। जब ये भावनाएं लंबे समय तक बच्चे पर हावी रहती हैं, तो वह खुद को अकेला समझकर भारी मानसिक बोझ उठाता है।
साइकोलॉजिस्ट डॉ. सोनम छटवानी कहती हैं कि कोई भी बच्चा एक दिन में सुसाइड नहीं करता। यह कई दिनों की मानसिक पीड़ा का परिणाम होता है। इसलिए पैरेंट्स का बच्चे के साथ रोज सिर्फ पांच मिनट की खुली बातचीत का नियम बहुत जरूरी है। अगर बच्चे के मूड, नींद, खाने की आदत या व्यवहार में बदलाव दिखे, तो इसे हल्के में बिल्कुल न लें। स्कूल से बात करें और उसकी परेशानी समझें।
स्कूलों में काउंसलर होना बेहद जरूरी है, ताकि बच्चे बिना डर अपनी समस्या बता सकें। टीचर्स की संवेदनशील ट्रेनिंग भी अनिवार्य है, जिसमें उन्हें सिखाया जाए कि बच्चों को शर्मिंदा या अपमानित करना कितना खतरनाक हो सकता है। बुलिंग, धमकाने और इंसल्ट पर स्कूलों में जीरो टॉलरेंस पॉलिसी होनी चाहिए। साथ ही कम्युनिटी सपोर्ट सिस्टम, पेरेंट-एजुकेशन कैंप और मेंटल हेल्थ फर्स्ट-एड ट्रेनिंग बच्चों के लिए सुरक्षित वातावरण तैयार करते हैं।
बच्चा चुप हो जाए, उसकी नींद और भूख बदल जाए, वह खुद को बेकार समझने लगे या उसकी बातों में निराशा झलकने लगे—ये सभी संकेत तुरंत अलार्म की तरह देखे जाने चाहिए। आज जरूरत इस बात की है कि हम बच्चों की बातों को सिर्फ सुनें नहीं, बल्कि समझें भी। तभी ऐसी त्रासदियों को रोका जा सकता है।