इंडिगो संकट से मिला कड़ा सबक: मोनोपॉली की गिरफ्त में भारत की अर्थव्यवस्था और बढ़ता खतरा

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भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन इंडिगो में पैदा हुआ हालिया संकट सिर्फ एक कंपनी की ऑपरेशनल विफलता भर नहीं था, बल्कि इसने देश की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के भीतर छिपी एक गंभीर संरचनात्मक कमजोरी को उजागर कर दिया। नवंबर में जब पायलट और क्रू मेंबर्स को अधिक आराम देने से जुड़ा नया नियम लागू हुआ, तभी इंडिगो का जटिल और बेहद व्यस्त उड़ान शेड्यूल चरमराने लगा। दिसंबर के पहले ही हफ्ते में हालात इस कदर बिगड़े कि एक ही दिन में 1,000 से ज्यादा उड़ानें रद्द करनी पड़ीं और 10 लाख से अधिक यात्रियों की बुकिंग प्रभावित हुई। देशभर के एयरपोर्ट पर अव्यवस्था फैल गई, यात्री घंटों फंसे रहे और आखिरकार सरकार को एयरलाइन की कार्यप्रणाली की जांच के आदेश देने पड़े।

इस पूरे घटनाक्रम ने एक बुनियादी सवाल खड़ा कर दिया—आखिर एक ही कंपनी की गड़बड़ी से दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा एविएशन सेक्टर लगभग ठप कैसे हो सकता है? इसका जवाब बाजार में प्रतिस्पर्धा की कमी में छिपा है। पिछले डेढ़ दशक में इंडिगो ने जिस रफ्तार से सफलता हासिल की, उसने भारतीय घरेलू एविएशन बाजार में 64 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सेदारी अपने नाम कर ली। दूसरी ओर एयर इंडिया करीब 25 प्रतिशत हिस्से के साथ दूसरे नंबर पर है। यानी पूरा सेक्टर कुछ ही कंपनियों के भरोसे चल रहा है। ऐसे में जब बाजार के सबसे बड़े खिलाड़ी को झटका लगता है, तो उसका असर पूरे सिस्टम पर पड़ना तय हो जाता है।

इंडिगो की गड़बड़ी का असर इतना व्यापक था कि सरकार को अपना नया सुरक्षा नियम तक अस्थायी रूप से वापस लेना पड़ा। एयरलाइन प्रबंधन ने खराब मौसम, सॉफ्टवेयर अपडेट और अन्य तकनीकी कारणों का हवाला देते हुए माफी मांगी, लेकिन इससे यात्रियों की परेशानी कम नहीं हुई। रायपुर से लेकर मुंबई तक एयरपोर्ट पर नाराज यात्रियों की तस्वीरें सामने आईं, जहां उड़ानें देर से चलीं या आखिरकार रद्द कर दी गईं।

इस संकट की कीमत इंडिगो को शेयर बाजार में भी चुकानी पड़ी। कंपनी के शेयरों में करीब 15 प्रतिशत की गिरावट आई और उसकी मार्केट वैल्यू लगभग 4.8 अरब डॉलर यानी करीब 43 हजार करोड़ रुपये घट गई। इसके बाद सरकार ने कड़ा रुख अपनाया। नागरिक उड्डयन मंत्री के. राम मोहन नायडू ने संसद में साफ कहा कि कोई भी एयरलाइन, चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों न हो, गलत योजना बनाकर यात्रियों को इस हद तक परेशान नहीं कर सकती। उन्होंने संकेत दिया कि इस मामले में सख्त कार्रवाई की जाएगी ताकि यह सभी एयरलाइंस के लिए एक मिसाल बने। उनका यह बयान भी अहम था कि भारत जैसे तेजी से बढ़ते देश को कम से कम पांच बड़ी एयरलाइंस की जरूरत है, जिससे बाजार में संतुलन बना रहे।

इंडिगो का यह खराब हफ्ता दरअसल भारत की अर्थव्यवस्था में फैलती मोनोपॉली की समस्या की एक झलक भर है। एविएशन ही नहीं, देश के कई अहम सेक्टरों में कुछ गिनी-चुनी कंपनियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। भारत के सबसे मुनाफेदार एयरपोर्ट दो ही कंपनियां संचालित कर रही हैं, वहीं देश के करीब 40 प्रतिशत ईंधन की रिफाइनिंग भी दो कंपनियों के हाथ में है। दूरसंचार, ई-कॉमर्स, बंदरगाह और स्टील जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में भी यही तस्वीर दिखाई देती है।

दूरसंचार सेक्टर का उदाहरण भी यही कहानी दोहराता है। कुछ समय पहले तक तीन बड़ी कंपनियां मौजूद थीं, लेकिन वोडाफोन आइडिया भारी कर्ज के दबाव में आ गई। मार्च में सरकार ने उसका बड़ा बकाया अपनी हिस्सेदारी में बदल लिया और अब कंपनी में 49 प्रतिशत हिस्सा सरकार के पास है। इससे भले ही तीन राष्ट्रीय टेलीकॉम कंपनियां बनी रहीं, लेकिन वोडाफोन आइडिया आज भी आर्थिक संकट से जूझ रही है और बार-बार मदद की गुहार लगाती है। सरकार की यह दोहरी भूमिका—एक तरफ नियामक और दूसरी तरफ हिस्सेदार—इंडिगो जैसे मामलों में उसकी प्रतिक्रिया को और जटिल बना देती है।

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस तरह की मोनोपॉली अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा खतरा बन सकती है। ओ.पी. जिंदल यूनिवर्सिटी के राजनीतिक अर्थशास्त्री रोहित ज्योतिष के मुताबिक, जब पूरे सेक्टर में सिर्फ दो-तीन बड़े खिलाड़ी होते हैं, तो फेलियर के पॉइंट भी उतने ही सीमित रह जाते हैं। इसका मतलब यह है कि किसी एक के लड़खड़ाते ही पूरा सिस्टम हिल जाता है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के एक अध्ययन में भी यह सामने आया है कि 2015 के बाद भारत के पांच सबसे बड़े कारोबारी समूहों की कॉर्पोरेट आय और संपत्तियों में हिस्सेदारी तेजी से बढ़ी है।

बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने के पीछे कई आर्थिक वजहें होती हैं। स्केल के कारण उनकी लागत कम हो जाती है, जिससे वे ज्यादा मुनाफा कमा सकती हैं। लेकिन यही ताकत उन्हें कीमतें बढ़ाने और बाजार पर पकड़ मजबूत करने का अवसर भी देती है। विशेषज्ञों का कहना है कि जब बड़ी कंपनियां राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करने लगती हैं, तो नवाचार रुकता है और नीतियां भी उन्हीं के पक्ष में ढलने लगती हैं।

नई कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती कर्ज तक पहुंच है। 2015 के आसपास इंफ्रास्ट्रक्चर बूम के फूटने के बाद से बैंक ज्यादातर उन्हीं कंपनियों को कर्ज देने में सहज हैं, जो पहले से मजबूत हैं। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के मुताबिक, भारत में बड़े कॉरपोरेट्स को मिलने वाला आसान कर्ज उनकी सबसे बड़ी ताकत बन चुका है। इसका नतीजा यह होता है कि छोटी और नई कंपनियां बाजार में टिक ही नहीं पातीं।

इस पूरी तस्वीर में भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग की सीमित भूमिका भी सवालों के घेरे में है। आयोग ने माना है कि कई बड़े सेक्टरों में मोनोपॉली मौजूद है, लेकिन उसके पास मुख्य रूप से विलय की जांच और मंजूरी या अस्वीकृति की ही शक्ति है। वह न तो कंपनियों की बढ़त को रोक सकता है और न ही एविएशन जैसे उद्योगों में एकाधिकार कम करने के लिए ठोस कदम उठा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि ज्यादा प्रतिस्पर्धी माहौल बनाने की जिम्मेदारी आखिरकार चुनी हुई सरकारों को ही उठानी होगी।

इंडिगो संकट ने यह साफ कर दिया है कि अगर भारत को अपनी तेज आर्थिक रफ्तार बनाए रखनी है, तो उसे मोनोपॉली की इस बढ़ती समस्या से गंभीरता से निपटना होगा। वरना एक कंपनी की चूक पूरे सिस्टम को बार-बार ठप करती रहेगी, और इसकी कीमत देश की अर्थव्यवस्था और आम नागरिक दोनों को चुकानी पड़ेगी।

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